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वणि देवलि तित्थ भमहि' आयासो वि नियंतु । अम्मिय विहडिय भेडिया' पसुलोगडा भमंतु ॥188॥
शब्दार्थ - वणि- वन में; देवलि - देवालय में; तित्थइं- तीर्थ में; भमहि - घूमे हो; आयासो-आकाश को वि-भी नियंतु-देखा; अम्मिय - अहो ! ; विहडिय - बिछुड़े ( मिले); भेडिया - भेड़िया (से); पसुलोगडा - पशुओं (से); भमंतु - घूमते हुए ।
अर्थ - वन में, देवालय में, तीर्थों में इसने भ्रमण किया । यहाँ तक कि आकाश में भी देखा । अहो ! घूमते हुए इसकी भेंट भेड़िये आदि पशुओं से भी हुई।
भावार्थ- जो वास्तविक तीर्थ को नहीं समझते हैं, वे लोभवश या तरह-तरह की आशाएँ लेकर वनों में, मठों में, सिद्ध पुरुषों के पास, मन्दिरों में, तीर्थ स्थानों में भ्रमण करते हैं । किन्तु वहाँ पर भी इसको क्या मिला ? कहीं पर पशु-पक्षी, मनुष्यादि दिखलाई पड़े, तो कहीं तरह-तरह के पेड़-पौधे; परन्तु आत्मा-परमात्मा का कहीं दर्शन नहीं हुआ। इसका मूल कारण यह भ्रम, मिथ्या श्रद्धान रहा कि तीर्थस्थान में परमात्मा का निवास है । आचार्य अमितगति स्पष्ट शब्दों में बार-बार कहते हैं कि परमात्मदेव तो अपनी देह में स्थित हैं, तुम बाहर में कहाँ ढूँढ़ते हो ? शरीर में स्थित निर्मल आत्मतीर्थ को छोड़कर बाहर भटकने की आवश्यकता नहीं है। उनके ही शब्दों में
स्वतीर्थममलं हित्वा शुद्धयेऽन्यद् भजन्ति ये ।
ते मन्ये मलिनाः स्नान्ति सरः संत्यज्य पल्वले ॥ योगसार, 6, 25 अर्थात्-अपने निर्मल आत्मतीर्थ को छोड़कर जो मनुष्य शुद्धि के लिए अन्य तीर्थस्थानों पर जाते हैं, वे मलिन ( चित्त वाले) प्राणी सरोवर को छोड़कर पोखर में . स्नान करते हैं।
वास्तव में आत्मा ही तीर्थ है। जो एक बार शुद्धात्म स्वभाव को भज लेता है, वह अन्य कहीं जाना नहीं चाहता। क्योंकि शान्तिपूर्वक एक बार भी ज्ञानानन्द-अमृत पान कर लेने पर कौन ऐसा मूर्ख होगा जो खारा जल पीना चाहेगा? आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में
जं णिम्मलं सुधम्मं सम्मत्तं संजमं तवं गाणं ।
तं तित्थं जिणमग्गे हवेइ जदि संतिभावेण ॥बोधपाहुड, गा. 27
1. अ भमिहि; क, द, स भमहि; ब भमिहि; 2. अ आयासु; क, द, ब, स आयासो; 3. अ, क, ब, स भेडिया, भेट्टिया; 4. अ भम्मं; क, द, ब स भमंतु ।
दोहा : 221