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यह है कि हे देव! मुझे आपकी ही चिन्ता है। जब दोपहर का समय ढल जाएगा, तब तू सो जाएगा और यह पाली सूनी पड़ी रहेगी अर्थात् जब तक इस शरीर में आत्मा का निवास है, तब तक इन्द्रियों की यह बसी हुई नगरी भली लगती है। आत्मा के निकलकर चले जाने पर यह सब सुनसान ऊजड़ हो जाता है, इसलिए विषयों से विमुख होकर शुद्धात्मा की साधना कर लेनी चाहिए। आत्मा के उद्धार की चिन्ता उत्तम और दूसरे की भलाई की चिन्ता मध्यम कही गई है। काम-भोग की चिन्ता अधम है। वास्तव में चिन्ता सर्वथा अयुक्त है। आत्म-चिन्तन करना तो योग्य है, किन्तु नित्य, अखण्ड वस्तु की क्या चिन्ता?
आचार्य गुणभद्र का कथन है-"मुझ ज्ञानवन्त का याविषयाशा रूपी शत्रु कुछ भी नहीं कर सकता"-इस प्रकार के ज्ञानमद से उन्मत्त होकर उस आशा रूपी शत्रु से तनिक भी उपेक्षित रहना योग्य नहीं है। तीन लोक जिसने वश में कर लिए हैं, जैसे आशा रूपी शत्रु को अल्प गिनना योग्य नहीं है। तीन जगत् का महाभयंकर और अद्वितीय वैरी यही है। उसे तो सम्यक् प्रकार से विचारकर मूल से सर्वथा क्षीण करना चाहिए। अनन्त और अगाध समुद्र में रहने वाली वाडवाग्नि महान् समुद्र के लिए भी बाधा उत्पन्न करती है अर्थात् उसका शोषण करती है, जैसे ही विषयों की अभिलाषा, आशा आत्मा के अगाध ज्ञान-समुद्र को मलिन करती है। उससे निरन्तर सचेत, सावधान रहना चाहिए। जगत् में भी यह देखने में आता है कि शत्रु ने जिसे दबा रखा है, उसे शान्ति कहाँ से हो? (आत्मानुशासन, श्लोक 230)
___ जो सब संसारी जीवों के लिए रात है, उसमें परम तपस्वी जागते हैं और जिसमें सब संसारी जीव जाग रहे हैं, उस (मोह) दशा को योगी रात मानकर योग-निद्रा में सोते हैं। यहाँ पर 'सोने' का अर्थ आत्म-स्वरूप में विश्राम करना है। जब तक मोह का जोर है, प्रबलता है, तब तक उपयोग की सावधानी नहीं है। स्वशुद्धात्मा के सन्मुख होते ही मोह रूपी दोपहरी ढल जाती है और यह जीव अपने स्वरूप के सन्मुख हुआ अपने में विश्राम ले लेता है।
तुट्टइ बुद्धि तडत्ति जहिं मणु अंथवणहँ जाइ। सो सामिय उवएसु कहि अण्णहिं देवहिं काई 184॥
शब्दार्थ-तुट्टइ-टूट जाती है; बुद्धि-बुद्धि; जहिं-जहाँ; मणु-मन; अंथवणहं-अस्तमन को; जाइ-जाता है (प्राप्त होता) है; सो-सो;
1. अ जहि; क, द, ब, स जहिं; 2. अ अंथवणह; क, द, ब, स अंथवणहं; 3. अ, क, द, स कहि; व कहु; 4. अ देवहि; क, द, ब, स देवहिं।
पाहुडदोहा : 215