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जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गये सकज्जम्मि |
जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे ॥मोक्ष., गा. 31
जिसके ध्यान निश्चल होता है, उसी के समभाव निश्चल है। ध्यान का आधार समभाव है और समभाव का आधार ध्यान है । ( ज्ञानार्णव, 2, 25 )
शुद्ध मतिधारी आचार्यों ने ध्यान के समय दश स्थानों पर चित्त को रोकने के लिए कहा है - नेत्रयुगल, कर्णयुगल, नासिका का अगला भाग, ललाट, मुख, नाभि, मस्तक, हृदय, तालु, दोनों भौहों का मध्य भाग। इनमें से किसी एक स्थान में मन को विषयों से रहित करके ठहराना उचित है । ( ज्ञानार्णव, 13, 30 )
आचार्य शुभचन्द्र का कथन है- "हे मुनि ! इस प्रकार विकल्परहित, रागादि दोष रहित, सर्वज्ञायक ज्ञाता, सर्वप्रपंच से शून्य, आनन्दरूप, जन्म-मरण रहित, कर्मरहित जगत् के एक अद्वितीय स्वामी परमपुरुष परमात्मा का निज भाव शुद्ध करके भजन कर।” (ज्ञानार्णव, 31, 40 )
ऊपर के दोहे में एक अन्य गाँव बसाने की जो बात कही गई है, वह वास्तव में 'ज्ञानानन्द' की बस्ती है जो मन और इन्द्रियों के व्यापारों से दूर है। क्योंकि मन और इन्द्रियों की सहायता की वहाँ आवश्यकता नहीं होती है ।
देव तुहारी चिंत महु' मज्झणपसरवियालि ।
तुहु' अच्छे सहु' जाइ सुउ परम + णिरामय' पालि ॥18॥
शब्दार्थ - देव - हे देव !; तुम्हारी तुम्हारी चिंत-चिन्ता है; महु-मुझे; मज्झणपसरवियालि—मध्याह्न के प्रसार का अन्त, दोपहरी ढल जाएगी; तुहु - तुम; अच्छेसहु - रहो ; . जाइ - जाकर सुउ - सोओ; परम - अत्यन्त; णिरामय - सूनी, पालि - पाली ।
अर्थ - हे देव! मुझे तुम्हारी चिन्ता है । जब मध्यान्ह के प्रसार का अन्त हो जाएगा, तब तुम वहाँ जाकर सो जाना। फिर, वह पाली सूनी हो जाएगी ।
भावार्थ- शुद्धात्मा ही परमदेव है । आत्मज्ञानमयी आराधना उसे कहते हैं जहाँ ऐसी शुद्ध आराधना है कि मेरी आत्मा ही निश्चय से परमात्मारूप है। किसी भी पर-पदार्थ में परमाणु मात्र भी ममत्वरूप मिथ्यात्व का दोष न हो, ऐसी पवित्र भक्ति निर्वाणको ले जाती है । ( श्रीतारणस्वामी : ज्ञानसमुच्चयसार, 234 ) कहने का भाव
1. अ मुहि; क, द, ब, स महु; 2. अ, ब तुहुः क, द, स तुहुं; 3. अ, ब अच्छे सुह; क अच्छेसहि; द, स अच्छेसहु; 4. अ, स परम; क, द, ब परइ; 5. अ, स णिरामय; क, द णिरामइ; व निरामइ ।
214: पाहुडदोहा