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भावार्थ-वास्तव में जिस पद को, जिस पदार्थ को देखने के लिए पुरुष अनेक तीर्थों में घूमता-फिरता है, वह शिव तो अन्तरंग में ही विराजमान है। बाहर के तीर्थों में तो उसे बहुत खोजा, किन्तु अन्तर स्वभाव में दृष्टि नहीं की। आचार्य पद्मनन्दि सम्बोधन करते हुए कहते हैं-हे बुद्धिमानो! आत्मज्ञान रूप पवित्र तीर्थ एक आश्चर्यकारी तीर्थ है। उसमें भली-भाँति विधिपूर्वक स्नान करो। जो कर्म रूपी मैल अन्तरंग में है और जिसे अन्य करोड़ों तीर्थ नहीं धो सकते हैं, उस मैल को यह आत्मज्ञान रूपी तीर्थ धो डालता है। (पद्मनन्दिपंचविंशतिका, चन्द्रोदय अधिकार, श्लोक 28) मुनि योगीन्द्रदेव का कथन अत्यन्त स्पष्ट है-हे जीव! तुम रागादि मल से रहित आत्मा को छोड़कर अन्य तीर्थस्थानों पर मत जाओ, दूसरे गुरु की सेवा मत करो, अन्य देव का ध्यान मत करो। अपना आत्मा ही तीर्थ है, उसमें रमण करो, आत्मा ही गुरु है, इसलिए उसकी सेवा करो और वही देव है, उसी की आराधना करो।(परमात्मप्रकाश, 1,95)
संसार में ऐसा कोई तीर्थ नहीं, ऐसा कोई जल नहीं तथा अन्य कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिससे मनुष्य का शरीर प्रत्यक्ष रूप से पवित्र व शुद्ध हो जाए। मुनिश्री योगीन्द्रदेव के शब्दों में
सहज-सरूवइ अइ रमहि तो पावहि सिव संतु। (योमसार, दो. 87) अर्थात्-यदि अपने सहज स्वरूप में रमण करोगे, तो शान्त निर्वाण को प्राप्त करोगे।
भावार्थ-योगिराज योगीन्द्रदेव कहते हैं कि जिनदेव तीर्थ में और देवालय में विद्यमान हैं। परन्तु जो जिनदेव को देहरूपी देवालय में विराजमान देखता, समझता है वह कोई विरला पण्डित ही होता है। (योगसार, दोहा 45) क्योंकि श्रुतकेवली ने कहा है कि तीर्थों में तथा देवालयों में देव नहीं हैं (वहाँ तो जिनदेव की प्रतिमाएँ हैं), जिनदेव तो देह रूपी देवालय में विराजमान हैं-यह निश्चित रूप से समझो। (योगसार, दोहा 42)
सभी संसारी जीव दुःखी हैं, व्याकुल हैं, कोई सुखी नहीं हैं। एक मात्र शिवपद ही परम आनन्द का धाम है। जो अपने स्वभाव में निश्चय ही ठहरने वाला है, केवलज्ञानादि अनन्त गुणों से सहित परमात्मा है, उसी का नाम शिव है। वह कहीं बाहर में नहीं, अपने आत्मस्वभाव में स्थित है। उस शिव का जग को करने-धरने, पालन-पोषण, प्रलय आदि से कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि जगत् स्वयं अपने स्वभाव से परिणमनशील है, स्वतन्त्र है। इसलिए जगत् के कर्ता, धर्ता, हर्ता आदि से भिन्न परमात्मस्वरूप निज भगवान् आत्मा को, अपने स्वरूप को, केवलज्ञान को या मोक्ष पद को शिव समझो। अध्यात्मशास्त्रों में जिस शुद्ध शाश्वत भाव का उल्लेख किया
212 : पाहुडदोहा