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________________ आत्मा का हित स्वभाव के आश्रय से होता है। जब तक यह दूसरे का सहारा चाहता है, दूसरे से अपना भला होना मानता है, तब तक आत्महित की वृत्ति प्रारम्भ नहीं हो सकती। क्योंकि आत्मा का हित आकुलता से नहीं, निराकुल होने से होता है। इसलिए मोह, क्षोभ से रहित आत्मा का जो परिणाम है, वह धर्म है। आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहिं सासणे भणियं। मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो ॥भावपाहुड, गा. 83 अर्थात्-जैनशासन में जिनेन्द्रदेव ने यह कहा है कि पूजा आदि (तीर्थ-वन्दना, भक्ति) करने और व्रत सहित होने से 'पुण्य' होता है एवं मोह, क्षोभ से रहित आत्मा के परिणाम को 'धर्म' कहते हैं। ___पुण्य भोग का निमित्त है। उससे कर्म का क्षय नहीं होता है। (भावपाहुड, गा. 84) यदि शान्त, समता भाव से सहित तथा निरतिचार धर्म, सम्यक्त्व, संयम, तप और ज्ञान है, तो वह जिनमार्ग में तीर्थ है। यदि वह धर्म, सम्यक्त्व आदि भाव क्रोध सहित हैं, तो तीर्थ नहीं कहलाते हैं। (मोक्षपाहुड, गा. 27) आचार्य कुलभद्र के अनुसार-“जब यह आत्मा शान्त भाव में तिष्ठता है, तब यही महान् तीर्थ है। यदि आत्मा में शान्ति नहीं है, तो तीर्थयात्रा निरर्थक है। (सारसमुच्चय, श्लोक 311) मूढा जोवई देवलई लोयहि जाई कियाइं। देह ण पिच्छइ अप्पणिय जहि सिउ संतु ठियाई 181॥ शब्दार्थ-मूढा-मूर्ख जन; जोवइं-देखते हैं, दर्शन करते हैं; देवलइं-देवालयों को; लोयहि-लोगों के द्वारा; जाई-जो; कियाई-बनवाये गए हैं; देह-देह (रूपी देवालय); ण-नहीं; पिच्छइ-देखते (हैं); अप्पणिय-अपनी; जहिं-जहाँ; सिउ-शिव (परमात्मा); संतु-सन्त; ठियाइं-स्थित हैं। ___ अर्थ-लोगों के द्वारा बनवाये देवालयों में तो लोग देव का दर्शन करते हैं, उनको खोजते हैं, किन्तु देह रूपी देवालय में विराजमान शिव-सत्ता को नहीं खोज पाते हैं। 1. अ, क, द, ब जोवइ; स जोवइं; 2. अ देउलइ, क, द, स देवलइं; ब देवलइ; 3. अ लोयहि; क, द, स लोयहिं; व लोयह; 4. अ जाइ क, द, स जाइं; 5. अ, क, द, स पिच्छइ व पिच्छिय; 6. अ, क, द, स अप्पणिय; व अप्पणिया; 7. अ, ब, स जहि; क, द जहिं। पाहुडदोहा : 211
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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