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अग्ग' पच्छ " दहदिहहिं जहिं जोवउं तहिं सोई । ता महु फिट्टिय मंतडी अवसु ण पुच्छइ कोइ ॥ 176 ॥
शब्दार्थ - अग्गइं -आगे; पच्छइं-पीछे; दहदिहहिं - दशों दिशाओं में; जहिं–जहाँ; जोवउं–देखता हूँ; तहिं - वहीं; सोइ - वह है; ता - तब; महु - मेरी; फिट्टिय-मिट गई; भंतडी - भ्रान्ति; अवसु - अवश्य; ण-नहीं; पुच्छइ - पूछता है; कोई-कोई |
अर्थ-आगे-पीछे, दशों दिशाओं में, जहाँ मैं देखता हूँ वहीं वह है । इसलिए अब मेरी भ्रान्ति मिट गई है। किसी से पूछना आवश्यक नहीं रहा ।
भावार्थ - उक्त दोनों दोहों में रहस्यपरक भावात्मकसत्ता का वर्णन किया है। जब तक द्वैत बुद्धि है, तब तक भ्रान्ति है । चैतन्य मात्र का अवलोकन होने पर आत्मानुभवी पुरुष को चारों ओर प्रत्येक प्राणी में भगवान् आत्मा दिखलाई पड़ता है । वह प्रत्येक जीव को भगवान् आत्मा से कम नहीं समझता । उसे अपने और पराये सभी प्राणियों में बाहर से दिखने वाले तरह-तरह के आकार लक्षित न होकर केवल एक चेतन सत्तात्मक भगवान् आत्मा नजर आता है। उसकी सारी दृष्टि चैतन्यात्मक है। उसे चेतन से भिन्न कुछ अन्य दृष्टिगोचर नहीं होता। वस्तुतः यह भावात्मक सत्ता है।
यथार्थ में ज्ञानी को प्रत्येक प्राणी में भगवान् आत्मा लक्षित होता है । यद्यपि सभी जीवों की सत्ता भिन्न-भिन्न है, लेकिन उनमें भेद न होने से वह सभी चेतन द्रव्यों को समान रूप से देखता है। यह देखना वस्तुतः भावात्मक सत्ता रूप है। आचार्य पूज्यपाद का कथन है कि ज्ञानी जिस स्वरूप से अपने द्वारा अपने को अपने समान अनुभव करता है, वही अपने को समझता है । वह विचार करता है कि जो कुछ मैं इन्द्रियों से देखता हूँ, वह मेरा नहीं है । जब मैं इन्द्रियों को रोककर अपने भीतर देखता हूँ, तो वहाँ पर परमानन्दमय उत्तम ज्ञानज्योति परिलक्षित होती है, वही मैं हूँ । (समाधिशतक, श्लोक 51 )
1. अ अग्गइ; क, द, ब, स अग्गई; 2. अ पच्छइ; क, द, ब, स पच्छई; 2. अ दहदिहहि; क, द, ब, स दहदिहहि; 4. अ जहि; क, द, ब, स जहिं; 5. अ, ब, स जोवउ; क, द जोवउं; 6. अतिहि; क, द, ब, स तहिं 7. अ, क, द, स सोइ; ब सोउ; 8. अ फिट्टइ; क, द, स फिट्टिय; 9. अ पुच्छउ; क, द, स पुच्छइ; ब न पूछइ ।
206 : पाहु