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मर्यादा में रहना है। महापुरुष सदा मर्यादा में रहते हैं । जिस प्रकार शंख अपने शील, स्वभाव की मर्यादा छोड़ देता है, तो दुर्गति को प्राप्त होता है, उसी प्रकार जो पुरुष अपने ज्ञान-दर्शन स्वभाव से च्युत हो जाता है, वह चार गतियों और चौरासी लाख योनियों में पटका जाता है, फेंका जाता है। अतः यही अभिप्राय है कि आत्मस्वभाव से हटना ही सबसे बड़ा अपराध है
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महुयर' सुरतरुमंजरिहिं परिमलु रसिवि' हयास । हियडा फुट्टिवि किं ण मुयउ ढंढोलंतु पलास ॥15 ॥
शब्दार्थ - महुयर - मधुकर (सम्बोधन), भौरा सुरतरुमंजरिहिं - कल्पवृक्ष की मंजरी (के); परिमलु रसिवि - पराग-रस लेकर हयास - हताश, निराश; हियडा - हृदय; फुट्टिवि-फूटकर; किं ण- क्यों नहीं; मुयउ - मर गये; . ढंढोलंतु - ढूँढ़ते फिर रहे (हो); पलास - ढाक, टेसू (के लिए) ।
अर्थ - हे हताश मधुकर ! तुम कल्पवृक्ष की मंजरी के पराग का रस लेकर अब पलाश (ढाक, टेसू) के लिए घूमते-फिरते हो। तुम्हारा हृदय फूट क्यों नहीं गया और तुम मर क्यों नहीं गये?
भावार्थ-व्यंग्य अर्थ यह है कि एक बार जब जीव को अपने स्वभाव का रसास्वादन हो जाता है, तो वह नीरस, तुच्छ वैभव की प्राप्ति के लिए फिर चौरासी लाख योनियों में नहीं भटकता है। तुरन्त ही उसे ढाक के पत्ते की भाँति संसार ( राग, द्वेष) तथा इन्द्रियों के विषयों की नीरसता का भान हो जाता है। अतः निज शुद्धात्मानुभूति ही उत्तम स्वाद है। उसके सामने राग का स्वाद क्या है ? जो उत्तम पुरुष हैं, वे एक बार उत्तम स्वाद ले लेने पर फिर विषयों के स्वाद की अभिलाषा नहीं रखते। जन्म से ही विषयों का बार-बार स्वाद लेने पर भी कभी यह तृप्त नहीं हुआ।
इस दोहे का भाव यह है कि एक बार चैतन्य रस का स्वाद लेने के पश्चात् वास्तव में संसार नहीं सुहाता है । फिर, तुम नीरस विषयों में क्यों व्यर्थ में आसक्त हो रहे हो? उनमें ज्ञानी को मरण जैसा दुःख भासित होता है ।
' हयास' हताश शब्द का प्रयोग सार्थक है। जिसकी विषयों की अभिलाषा नष्ट हो गई है, ऐसे सम्यग्दृष्टि के लिए यह सब कहा गया है। 'मधुकर' शब्द परिभ्रमण
1. अ, क, द, स महुयर, ब महुअर; 2. अ, द, ब, स रसवि; क रसिवि; 3. अ, द, ब, स मुयउ; क मुवउ; 4. अ, क, ब, स ढंढोलंतु द ढंढोलंतउ ।
182 : हु