________________
अर्थ - अग्नि के संस्कार से शंख की सफेदी नष्ट नहीं होती। इसमें किसी प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिए। इस बात में कोई भ्रम नहीं रखना चाहिए कि वह अन्य किसी से मिलकर अपना गुण छोड़ देगा या उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन हो जाएगा।
भावार्थ- परमागम का सिद्धान्त यह है कि कोई भी द्रव्य अपने गुण को छोड़ता नहीं है और दूसरे का गुण ग्रहण नहीं करता है। इसलिए शंख अपनी सहज स्वाभाविक सफेदी गुण को नहीं छोड़ सकता । कविवर बनारसीदास के शब्दों में
ज्ञेयाकार ब्रह्म मल मानै ।
नास करनको उद्दम ठानै ॥
वस्तु स्वभाव मिटै नहि क्यौंही ।
तातैं खेद करै सयौंही ॥ 55 ॥ - समयसारनाटक, सर्वविशुद्धिद्वार
आचार्य अमितगति स्पष्ट रूप से कहते हैं कि प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने स्वभाव में व्यवस्थित है। यद्यपि जीव अनादि काल से कर्मों के साथ है, किन्तु जीव कभी कर्मरूप और कर्म कभी जीवरूप नहीं हुआ। उनके ही शब्दों में
कर्मभावं प्रपद्यन्ते न कदाचन चेतनाः ।
कर्म चैतन्यभावं वा स्वस्वभावव्यवस्थितेः ॥ योगसार, 2, 27
अर्थात् - चेतन कभी भी कर्मभाव को प्राप्त नहीं होते और इसी प्रकार कर्म चैतन्यभाव रूप नहीं होते। क्योंकि सभी द्रव्य अपने स्वभाव में व्यवस्थित हैं अर्थात् अपने स्वभाव को छोड़कर अन्य रूप नहीं पलटते । स्वभाव का अर्थ ही है - सदा एक भाव रूप रहना ।
संखसमुद्दहिं मुक्कियए' एही होइ अवत्थ । जो दुव्वाहह चुंबिया लाएविणु गलि हत्थ ||151॥
शब्दार्थ - संखसमुद्दहिं-शंख समुद्र से शंख की मुद्रा में पेटी से मुक्किए - मुक्त किए जाते हैं, बाहर निकाले जाते हैं; एही - ऐसी; होइ–होती है; अवत्थ–अवस्था; जो; दुव्वाहहं - दुर्व्याध, धीवर, नग्न; चुंबिया - चूमे गए; संलग्न; लाएविणु - लाये जाकर, बाहर लाये; गलि - गले में, कण्ठ में; हत्थ - हाथ ( में लेकर ) ।
1. अ संखसमुद्दह; क, द संखसमुद्दहिं; व संखसमुद्द; स संखसमुद्दहि; 2. अ, समुक्कियइ; क, द मुक्कियए; न मुक्कियइं; 3. अ सुव्वाहह; क, द, स दुव्वाहहं; न दुव्वाह ।
180 : हु