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अर्थ-षट्दर्शन के ग्रन्थों में बहुत अधिक एक दूसरे पर गरजते हैं। उसका कारण एक मात्र पर ही है, वे एक दूसरे को विपरीत समझते हैं।
भावार्थ-सभी दर्शनवालों के सच्चे न्याय-ज्ञान का अभाव है। यदि न्यायशास्त्र का सच्चा ज्ञान हो जाए, तो उनकी मिथ्या मान्यतायें मिटकर तत्त्वों का सम्यग्ज्ञान हो जाए और सभी एक होकर जैन हो जाएं, तब किसी को दोषी ठहराना भी न हो। जैनदर्शन की गणना भारतीय षट्दर्शनों में नहीं है। क्येंकि जैन और बौद्ध ईश्वर को कर्ता नहीं मानते हैं। भारत के 6 दर्शनों में सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसक और वेदान्त की गणना की जाती है। चार्वाक को नास्तिक माना गया है। वास्तव में आत्मा के अस्तित्व को मानने वाले आस्तिक हैं, लेकिन “नास्तिको वेदनिन्दकः” कहकर जो वेदों को प्रमाण नहीं मानते, उनको नास्तिक कह दिया गया है। सच बात तो यह है कि आत्मा की सत्ता को स्वीकार किए बिना कोई वास्तविक दर्शन नहीं हो सकता। लेकिन आत्मा को नित्य-अनित्य, प्रमाण को स्वतः या परतः, ज्ञान को शब्द से या अर्थ से मानने वाले वाद-विवाद करते हुए एक दूसरे पर गरजते हैं, तरह-तरह के तर्कों से एक दूसरे का खण्डन कर अपने पक्ष का मण्डन करते हैं। लेकिन इनसे 'यथार्थ निर्णय नहीं होता है। क्योंकि मिथ्याज्ञान से किसी भी अवस्था में वस्तु-स्वरूप की पहचान नहीं हो सकती है। एक ओर इन्द्रियज्ञान है और दूसरी ओर अतीन्द्रियज्ञान है। अतीन्द्रियज्ञान में वाद-विवाद को अवकाश कहाँ है? इन्द्रियों और मन के निमित्त से ज्ञान मानने वाले एक दूसरे को विपरीत समझते हैं। आचार्य नरेन्द्रसेन कहते हैं-सर्वथा नित्यवादी और सर्वथा अनित्यवादी दोनों मिथ्यादृष्टि हैं। जो पदार्थों को नित्यानित्य मानता है, वह भी मिथ्यादृष्टि है। क्योंकि निरपेक्ष नित्यानित्यवाद भी एकान्त नित्यवाद और एकान्त अनित्यवाद की तरह मिथ्या ही है। कारण यह है कि नयों का कथन सापेक्ष होता है। अपेक्षा के बिना वस्तु को नित्यानित्य मानने से सब नयों का घात होता है। (सिद्धान्तसार, गा. 74)
सिद्धंतपुराणहिं वेय वढ बुझंतहं णउ भंति। आणंदेण वि जाम गउ ता वढ सिद्धि कहति ॥127॥
शब्दार्थ-सिद्धत-पुराणहिं-सिद्धान्त, पुराण (ग्रन्थों को); वेद-वेदों (को) वढ-मूर्ख; बुझंतह-बूझते, समझते (होने पर भी) हुए; णउ-नहीं भ्रान्ति (दूर होती); आणंदेण-आनन्द से ही; वि-भी; जाम गउ-जब
1. अ, ब, सिद्धंतपुराणह; क सिद्धंतपुराणहं; द सिद्धंतपुराणहिं; 2. अ, द, ब व; क, स वि; 3. अ, क, ब, स सिद्धि; द सिद्ध।
पाहुडदोहा : 153