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इन्द्रियों से सम्बद्ध है। जीवन्मुक्त होने पर अर्हन्त परमात्मा के भावमन नहीं होता है। इसलिए उनकी दिव्यध्वनि इच्छापूर्वक नहीं खिरती है। जैसे बादल के आकार रूप परिणमित पुद्गलों का गमन, स्थिरता, गर्जन और जलवृष्टि पुरुष के प्रयत्न के बिना होता है, उसी प्रकार तीर्थकर की दिव्यध्वनि भाषा-वर्गणा के बिखरने के समय खिरती है जिसमें मन, वचन, कायका योग होता है। अतः वहाँ कर्म का आस्रव है। किन्तु सिद्ध भगवान् के इन तीनों में से कुछ भी नहीं है। अतः उनके आस्रव नहीं होता। परिणामतः उनके क्रोध, मान, माया और लोभ के भाव भी नहीं होते। यही कारण है कि अरिहंत-सिद्ध भगवान किसी से क्षमा नहीं माँगते। माँगे कैसे? उनके मन का ही अभाव है। वे अपने सहज स्वभाव में सदा लीन रहते हैं। पं. दौलतरामजी के शब्दों में
सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानन्द रस-लीन। सो जिनेन्द्र जयवन्त नित, अरि-रज रहस विहीन ॥ किं किज्जइ बहु अक्खरह जे कालिं खय जंति।
जेम अणक्खरु संतु मुणि' तव वढ मोक्खु कहति ॥125॥
शब्दार्थ-कि-क्या; किज्जइ-किया जाता है; बहु अक्खरहं-बहुत अक्षरों से; जे-जो (बहुवचन); कालिं खय जंति-(नियत) समय में क्षय (को प्राप्त) हो जाते हैं; जेम-जिस तरह; अणक्खरु-अनक्षर (क्षरण, क्षय न हो); संतु-होते हुए; मुणि-मुनि; तप-तप (को); वढ-मूर्ख; मोक्खु-मोक्ष; कहति-कहते हैं।
___अर्थ-हे मूर्ख! बहुत अक्षरों (को पढ़ने) से क्या किया जाए, क्योंकि वे कुछ • समय में क्षय को प्राप्त हो जाते हैं। जिससे मुनि अनक्षर (जिसका क्षरण, क्षय न हो) हो जाए, उस अक्षयता को मोक्ष कहते हैं। . भावार्थ-यह यथार्थ है कि अक्षरों को पढ़ लेने मात्र से कोई धर्मात्मा नहीं हो जाता। मुनि योगीन्दुदेव कहते हैं
पढ़.लेने से धर्म नहीं होता, पुस्तक और पिच्छी से भी धर्म नहीं होता, किसी मठ में रहने से भी धर्म नहीं होता तथा केश-लुंचन से भी धर्म नहीं होता। (योगसार, दो. 47.) ___ शास्त्रीय विद्या तो लोक को और अपने आपको समझने में सहायक है। जैसे
1. अ अक्खरइं; क, द, ब, स अक्खरहं; 2. अ कालें; क, द कालिं; ब, स कालं; 3. अ, क,
द, ब खउ; स खय; 4. अ, द, ब, स मुणि; क नवि; 5. अ वट्ट द, ब, स वढ; क चढ; . 6. अ सोक्खु; क, द, ब, स मोक्खु।
पाहुडदोहा : 151