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में तो आत्मानुभव ही एक प्रमुख कार्य है । क्योंकि आत्मानुभव के बिना मोक्ष-मार्ग प्रारम्भ नहीं होता ।
हलि सहि' काई करइ सो दप्पणु । जहिं पडिबिंबु ण दीसइ अप्पणु ॥ धंधवालु' मो जगु पडिहासइ । घरि अच्छंतु ण घरवइ दीसइ ॥ 12 ॥
शब्दार्थ–हलि–हे; सहि— सखि, काई - क्या; करइ - करता है; सो - वह; दप्पणु-दर्पण; जहिं-जहाँ, जिसमें; पडिबिंबु - प्रतिबिम्ब; ण- नहीं; दीसइ-दिखता है; अप्पणु - अपना; धन्धवालु - लज्जावान, मो - मुझे; जगु-जगत; पडिहासइ – प्रतिभासित (होता है), घरि-घर में; अच्छंतु-रहते हुए; ण घरवइ-न गृहस्वामी ; दीसइ - दिखलाई पड़ता
अर्थ - हे सखि ! उस दर्पण का क्या करें, जिसमें अपना प्रतिबिम्ब न दिखाई पड़ा हो । धन्धा करने वाला यह जगत् मुझे प्रतिभासित होता है । किन्तु घर में रहते हुए भी गृहस्वामी का दर्शन नहीं होता ।
भावार्थ- दर्पण ज्ञान का प्रतीक है । केवलज्ञान रूपी दर्पण में तीनों लोकों तथा तीनों कालों के सभी द्रव्य अपनी सम्पूर्ण पर्यायों सहित प्रतिबिम्बित होते हैं। जिस दर्पण रूपी ज्ञान में वर्तमान, भूत, भविष्य सभी कालों की पर्याय सहित द्रव्य न झलकते हों, तो उस दर्पण की क्या उपयोगिता है? दर्पण का उपयोग तो यही है . कि हम जैसे हैं और जो भी हमारी छवि है, वह ज्यों की त्यों उसमें प्रतिबिम्बित हो। यह निश्चित है कि निर्मल ज्ञान में सभी पर्यायें प्रतिबिम्बित होती हैं । अतः सुमति रूपी सखि का यह कथन ठीक है कि ज्ञानचेतना में रमकर, जमकर ऐसी साधना करनी चाहिए; जिसमें ध्येय और ज्ञेय की एकता हो । क्योंकि ध्येय और ज्ञेय की एकता होने पर ही स्वात्मोपलब्धि होती है ।
है।
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उक्त पद में सुमति रूपी सखि ज्ञान- परिणति रूपी सहेली से अपने अन्तरंग रहस्य को प्रकट करती हुई कहती है - हे सखि ! जिस दर्पण में अपना रूप प्रतिबिम्बित न हो, उसे देखने से क्या लाभ? इसका सांकेतिक अर्थ है कि प्रियतम परमात्मा के दर्शन के लिए आत्मानुभव रूपी ज्ञान दर्पण का अवलोकन किया जाता है, लेकिन
1. अ हल सह; क, द हलि सहि; ब हल्लसई; स हल्ल सहि; 2. अ, क, द, स करइ; ब कीरइ; 3. अ, ब, स जहि; क, द जहिं; 4. अ, द स पडिबिंबि; क पडिविंबु; ब पडिबिंब; 5. अ, क, ब, स धंधवालु, द धंधइवालु; 6. अ, द स घरि क घर; ब घूरि ।
पाहुडदोहा : 149