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मूढ़ करमकौ करता होवै, फल अभिलाष धरै फल जोवै। ग्यानी क्रिया करै फल-सूनी, लगै न लेप निर्जरा दूनी ॥
-समयसार निर्जराद्वार, 42
देहं गलंतहं सव्वु गलइ मई-सुइ-धारण-घेउ। तहिं तेहई वढ' अवसरहिं विरला सुमरहिं देउ ॥104॥ __ शब्दार्थ-देह-शरीर (के); गलंतह-गलते (के); सब्बु-सब; गलइगलता है; मइ-सुई-धारण-धेउ-मति, श्रुत, धारण, ध्येय; तहिं-वहाँ; तेहइं-उसी तरह; वढ-मूर्ख; अवसरहिं-अवसर पर; विरला-विरले (प्राणी); सुमरहिं-स्मरण करते हैं; देउ-देव (का)।
अर्थ-हे मूर्ख! देह के गलते ही मति, श्रुति, धारण तथा ध्येय सब गल जाता है। इसलिए इस अवसर पर विरले ही देव का स्मरण करते हैं।
भावार्थ-'देह' का अर्थ शरीर है। यही नहीं, उसमें जो ममत्व, अपनापन है और जिससे शरीर. को मैं 'आप' रूप मानता हूँ, वह भी शरीर ही है। परन्तु शरीर नाम कर्म की रचना है। अज्ञानी शरीर से अपने को भिन्न नहीं समझता है। आचार्य पूज्यपाद कहते हैं
• मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मधीस्ततः।-समाधि शतक, 15
त्यक्त्वैनां प्रविशेदन्तर्बहिरव्यापृतेन्द्रियः ॥ ___अर्थात्-संसार के सभी दुःखों का मूल इस देह से राग करना है। इसलिए आत्मज्ञानी इससे राग छोड़कर तथा इन्द्रियों को संकुचित कर अपने आत्मस्वभाव में प्रवेश करते हैं। 'विकल्प' कहने से मिथ्यात्व, रागादि का ग्रहण हो जाता है। ___जब तक हमें हर समय शरीर का खयाल रहता है और उसके लिए ही सारा उद्यम करते रहते हैं, तब तक हमारी बुद्धि संसार को साधने में लगी रहती है, लेकिन 'ममत्व' भाव विगलित होते ही हमारा उपयोग संसार से हट जाता है। परमात्मा का ध्यान होने पर उपयोग शुद्ध स्वभाव की ओर जब शुद्धात्मा के सन्मुख होता है, तभी परमात्मा की सच्ची भावपूजा होती है। ऐसे लोग विरले होते हैं, जिनको सहज ही परमात्मा का स्मरण होता हो और जो वास्तविक पूजा करते हों। इस शरीर के साथ रहते हुए मूढ़ आत्मा ने शरीर को स्थिर मानकर जो पाप कर्म किए हैं, उनसे दुःखों
1. अ.सदु; क, द, सवुः ब, स सब्बु; 2. अ, क, द मइ ब, स मई; 3. अ, ब, स तहि; क, द तहिं; 4. अ वर; द, ब, स वद; क हल्लोहलइं; 5. अ सुमरी; क, द, स सुमरहिं; व सुमिरई।
पाहुडदोहा : 129