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________________ न्यायविनिश्चयविषरण जिन १.या १४ बातोंको अभ्याकृत' कहा है उनमें प्रमुख रूपसे भात्मा और लोक सम्बन्धी प्रक्षही। इसका कारण भी उन्होंने बताया है कि इनके बारेमे कुछ कहना सार्थक नहीं है और भिक्षुचर्याक लिए उपयोगी नहीं है और न यह निर्धेद, निरोध, शान्ति, परमशान या निर्वाणके लिए ही आघश्यक है। कौन ऐसा मुमुक्षु होगा जो अपनी चित्तसस्ततिके उस्छेदके लिए प्रयान या अनुष्ठान करेगा। चाककी आत्मा गर्भसे मरण पर्यन्त रहती है और बुखकी पिससम्तप्ति निर्वाण पर्यन्त । यदि निर्माण में उसका समूलोच्छेद हो जाता है तो चार्वाक सिद्धान्तसे कोई विशेषता नहीं रहती। घुलमे अपनेको मशाश्वत अनुक्छेदवादी कहा है। वे न तो आत्माको उपनिषद्घादियोकी सरह सपंथा शाश्वत मानना चाहते थे और न भौतिकवादियोंकी तरह सर्वथा उछिन्न हो, इसीलिए उन्होंने उन दोनों अतोसे उचनके लिए अपने मतको दो नकारोंसे सूचित किया है। जो बुबु अपनेको अनुच्छेववादी कहते हैं उन्होंने निर्वाणको कैसे प्रदीपनिर्वाण की तरह चित्त-सन्ततिके उच्छेव रूपसे कहा होगा? इसीलिए दार्शनिक क्षेत्रमै निराखब पित सन्ततिरूप निर्वाण माननेका भी एक पक्ष मिलता है और यही युक्तियुक्त भी है। तश्वसंग्रह पंजिका (पू०१०) में एक प्राचीन इलोक संसार और निर्वाणके स्वरूपका प्रतिपावन करनेवाला उद्धत - "वित्तमेव हि संसारो रागादिक्लेशवासितम् । तदैव तैर्विनिमुक्त भवान्त इति कथ्यते।" भर्थात् चित्त जम रागादि दोष और क्लेश संस्कारसे संयुक्त रहता है तब संसार कहा जाता है और जब तदेव-वहीं चितरागादि क्लेश वासनाओंसे रहित होकर निरासप बन जाता है तब उसे भवान्स अर्थात् निर्वाण कहते हैं । शान्तरक्षित (तस्वसंग्रह पृ.५८४) तो बहुत स्पष्ट लिखते हैं कि "मुक्तिनिर्मलता घियः" अर्थात धी-चित्तकी निर्मटताको मुक्तिकहते हैं। माध्यमिकवृत्ति में निर्वाणपरीक्षा पूर्वपक्षमें सोपविशेष और निरूपधिशेष निर्वाणीका वर्णन है। सोपधिशेष निर्माणमें रागादिका नाश होकर ५स्कन्ध जिले जीव कहते है, निरास्रव दशामे रहते है, जब कि निरुपधिशेष निर्वाणमें वे भी नष्ट हो जाते है। बौद्ध परम्परा में निर्वाणकी इन धाराओंके वीज बुके निर्वाणको अग्याकृत करने में ही निहित है। इसी असंगप्तिका परिहार करनेके लिए जैन परम्परामें मोक्षको उसी आत्माकी शुन-दशा-रूप बताया गया है जो कि मम्बनबद था। आत्मा एक स्वतन्त्र मौलिक तस्व है जो अनाविसे अमन्तकाल तक प्रतिक्षण परिवर्तन करनेपर भी अपनी ससाका विच्छेद महीं होने देता । कालिक अविरिषसत्ता ही इयका प्राण है। यदि आत्माको सर्वथा निस्य याने परिणमनील माना जाता है तो उसमें सन्धन और मोक्ष ये दो अवस्थाएँ नहीं बन सकेंगी। वह या तो बद्ध होगा या मुक्त। पहले मैंधना और पीछे मुक्त होना परिणममके पिना १ लोक निस्य है, अनित्य है, नित्य अनित्य है, न निस्य न अनित्य है। लोक अन्तवान् है, नहीं है, है नहीं है, न है न नहीं है, निर्वाणके बाद वधागत होते हैं, नहीं होते, होते नहीं होते, न होते न नहीं होते; जीव शरीरसे भिन्न है, जीव शरीरसे भिन्न नहीं है। (माध्यमिक तृप्ति ३०४४६) हन चौदह वस्तुओंको अन्याकृत कहा है। मसिम निकाय ( शरा३) में इनकी संख्या दश है। इसमें आदिको प्रश्नों में तीसरा और चौथा विकल्प नहीं गिना गया । २ "इह हिं भगवता...द्विविधं निर्वाणमुपवर्णित सोपधिशेष निस्पधिशेषं च निरवशेषस्य अवि. द्यारागादिकत्स क्लेशगणस्य प्रहाणात् सोपविशेषं निर्वाणमिण्यते । तत्रोपधीयते अस्मिन् आत्मस्नेह इत्पुपधिः । उपधिशन्देन आत्मचप्सिनिमित्ताः पञ्चोपादानस्कन्धा उच्यते । शिष्यत इति शेषः। उपधिरेव शेषः उपधिशेषः । सह उपधिशेषेण वर्तते इति सोपधिशेषम् । किं तत् । निर्वाणम् । तच्च स्कन्धमाकमेव केवलं सल्कायदृष्टया दिक्लेशतस्कररहितमवशिष्यते निहताशेषचौरगणग्राममात्रावस्थानसाधम्र्येण तस्सोपधिशेषं निर्चा णम् । यत्र तु निर्वाणे स्कन्धमात्रकमपि नास्ति तन्निरूपधिशेषं निर्वाणम् । निर्गत उपधिशेषोऽस्मिमिति कृत्वा । निहताशेष चौरगणस्य प्राममात्रस्यापि विनाशसाघम्मेण ।"-माध्यमिकवृत्ति पृ०५१९ ।
SR No.090313
Book TitleNyayavinishchay Vivaranam Part 2
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages521
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size13 MB
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