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________________ प्रस्तावना ज्ञान भी प्रमाण होना चाहिए। यदि शब्द वाद्यार्थी प्रमाण न हो तो बौद्ध स्वयं शब्दासे उन नदी, देश, पर्वत आदिका ज्ञान कैसे कर सकते है जो इन्द्रियोंसे विखाई नहीं देते। यदि कुछ अर्थको गौरमौजूदी में प्रवृत्त होनेके कारण व्यभिचारी देखे जाते हैं तो इसने मानसे सभी शब्दोंको व्यभिचारी या प्रमाण नहीं कहा जा सकता । जिस प्रकार प्रत्यक्ष या अनुमान कहीं-कहीं भ्रान्त देखे जामेपर भी अभ्रान्त और अन्यभिचारी अवस्था प्रमाण होते हैं उसी तरह अभ्रान्त शब्दको बायार्थ में प्रमाण मामना चाहिए । अदि हेतुवाद रूप शब्दसे अर्थका निश्चय न हो तो साधन और साधनाभासकी व्यवस्था कैसे होगी उसी तरह आप्तके वचनोंके द्वारा अर्थबोध न हो तो आस और अनाप्तका भेद कैसे ज्ञात हो सकता है? शन्नामें साथार्थता और असत्यार्थताका निर्णय अर्थमाप्ति और अमाहिसे ही फिया जा सकता है। यदि पुरुषों के अभिप्रायमें बिचिन्नता या विसंघाद होनेके कारण शम्न अर्थव्यभिचारी मान लिये जाय तो बुद्धकी सर्वज्ञता और सर्वशास्तुतामें कैसे विश्वास किया जा सकता है। वहाँ भी अभिप्राय वैचित्र्यको शंका हो सकती है। यदि कहींपर अर्थप्यभिचार देखे जाने के कारण पाद अर्थमें प्रमाण नहीं है तो विवक्षाका व्यभिचार भी देखा जाता है अतः उसे विषक्षामें भी प्रमाण नहीं मानना चाहिए । किसीकी विषक्षा होती है और कोई शब्द मुंहसे निकल जाता है। कहींपर शिशपा लताको सम्भावना होमेपर भी जिस प्रकार सुविवेचित शिशपाव हेतु वृक्षका अविसंघादी है और धनजन्य अग्निको कहींपर मणिसे उत्पन्न होनेपर भी जिस तरह सुविवेचित अग्नि धनजन्य ही मानी जाती है उसी तरह सविवेचित गाब्द अर्थका म्प्रभिचारी नहीं हो सकता । व्यभिचारी शब्द उसी तरह शब्याभासकी कोटिमें शामिल हैं जिस तरह व्यभिचारी प्रत्यक्ष प्रत्यक्षाभासमें और व्यभिचारी अनुमान अनुमानाभासमें । अतः अविसंवादी शब्दको अर्थ में प्रमाण मानमा ही चाहिए। यदि शवमात्र विषक्षाके ही सूचक हो तो उनमें सत्यत्व और असत्यत्वकी विवक्षा नहीं हो सकेगी, क्योंकि दोनों प्रकारके शब्द अपनी विषक्षाका सूचन तो करते ही हैं। विषक्षाके बिना भी सुषुप्तावि भवस्थामें शरनुप्रयोग देखा जाता है और शास्त्र व्याख्यानकी विवक्षा रहनेपर भी मैपबुद्धि शास्त्र-ध्यारूषान नहीं कर पाते अतः शब्दोंको विवशाजन्य नहीं माना जा सकता। तात्पर्य यह कि शन्द्रों में सस्थाथ और असत्यत्वका निर्णय करनेके लिए उन्न भर्यका वाचक मानना ही चाहिए। शब्दका स्वरूप शब्द' पुद्गल स्कन्धकी पर्याय है जैसे कि छाया और आतप । कंठ तालु आदि भौतिक कारणों के अभिधातसे प्रथम शब्द वक्ताके मुखमै उत्पन्न होता है उसको निमित्त पाकर लोकमै भरी हुई शब्द वर्गणाएँ (विशेष प्रकारके पुदल) शहदरूपसे सनसना उठती हैं। जैसे किसी जलाधायमै पत्थर फेंकने पर पाइली लहर पत्थर और जलके अभिघातसे उत्पन्न होती है और आगेकी लहरें. उस प्रथम लहरसे उत्पन्न होती है। उसी तरह चीचि सरस-यायसे शब्दकी उत्पत्ति और प्रसार होता है। भाजका विज्ञान भी यही मानसा है कि वातावरण में (थरम) प्रत्येक शब्द अमुककाल तक अपनी सूक्ष्मसत्ता रखता है। जहाँ उसको ग्रहण करनेवा ग्राहक यन्य ( Receiver) मौजूद६, वहाँ ये उसके द्वास गृहीत हो जाते है । शब्द रिकामें भरे बाते हैं इसका अर्थ है कि यन्त्रविशेषके द्वारा उत्पा पाब्द विशेषप्रकारके पुरम रिकार्डकी ऐसी सूक्ष्म शब्द रूप पर्याय उत्पन्न कर देता है कि वह अमुक कालतक सुईके संपर्कसे उसी प्रकारके शब्दको उत्पका करती रहती है। मीमांसक शब्दको नित्य मानते हैं, उसका.प्रधान कारण है पेड़को निस्य और अपौरुषेय मानना । यदि शब्द नित्य और व्यापक होतो व्यंजक वायुसे एक जगह उसकी अभिव्यक्ति होनेपर सभी जगह सभी वोंकी अभिव्यक्ति होनेसे कोलाहल मच जाना चाहिए। संकेतके लिए भी शब्धको मिष्य मानना भावश्यक नहीं है। भनिरय होनेपर भी सरश शब्दसे संकतानुसार पवहार चल जाता है। "मह वही शब्द "यह प्रत्यभिज्ञान शब्चकी निष्यताके कारण नहीं होता किन्तु १ "शब्दः पुद्गलपर्यायः स्कन्धः छायातपादिवत्"-सिद्धिवि० लि. पृ० ४६३ ।
SR No.090313
Book TitleNyayavinishchay Vivaranam Part 2
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages521
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size13 MB
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