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न्यायरत्नसार : षष्ठ अध्याय
भी यही विचार रहता है। परन्तु इन दोनों में परस्पर में कुछ अन्तर भी है। जल्प में तो वादीप्रतिवादी दोनों का कोई पक्ष रहता है जिसे सिद्ध करने की ये चेष्टा करते हैं किन्तु वितण्डा में सिर्फ वादी का ही पक्ष रहता है । प्रतिवादी अपना कोई पक्ष नहीं रखता वह तो वादी जो कुछ कहता है उसी का खण्डन करता है ॥ ३२ ॥
तत्त्वनिर्णयेच्छुकथा :
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सूत्र - तत्वनिर्णयार्थ क्रियमाणो जयपराजयविहीनो विचारस्तस्वनिर्णयेच्छुकया ।। ३३ ।।
व्याख्यातत्त्व निर्णय के लिये जय-पराजयविहीन किया गया जो विचार है वह तत्त्वनिर्णयेकथा है जो सिद्धान्तोक्त तत्त्वों को अच्छी तरह से समझने के लिये तथा पर को समझाने के लिये अभिलाषी होता है उसका नाम तत्वनिर्णयेच्छु या तत्त्वबुभुत्सु है । शिष्य को जब किसी विषय में सन्देह उत्पन्न हो जाता है तब वह उस सन्देह की निवृत्ति के लिये गुर्वादिजनों से पूछता है, उनके साथ विचारविनिमय करता है, सो उसमें पक्ष- प्रतिपक्ष का या जय-पराजय का विचार नहीं होता, समझने का या समझाने का ही राग-द्वेषशून्य एक भाव रहता है। इसी कारण इन कथा के करने वालों को बादी प्रतिवादी नहीं कहा गया है किन्तु वीतरागी तत्त्वनिर्णयेच्छु कहा गया है ।। ३३ ॥
विजिगीषु कथा :--
सूत्र -- स्वाभिमत धर्मध्यवस्थापनार्थ स्वपर - पक्षसाधन-दूषणाभ्यां पर-पराजयेच्छुकथा विजिगोषु कथा || ३४ ॥
व्याख्या- अपने द्वारा स्वीकार किये धर्म की सिद्धि करने के लिये स्वपक्ष के साधन एवं परपक्ष के दूषण द्वारा प्रतिवादी को जीतने की अभिलाषा रखने वाला विजिगीषु होता है । इस विजिगीषु के द्वारा किया गया जो शास्त्रार्थं है उसी का नाम विजिगीषु कथा है । सूत्रस्थ द्विवचन के प्रयोग से यह स्पष्ट किया गया है कि केवल स्वपक्ष की सिद्धि कर लेने मात्र से वादी को विजय का लाभ नहीं होता है किन्तु स्वपक्ष की सिद्धि और परपक्ष का निराकरण करना – इन दोनों के करने से ही विजयश्री का लाभ होता है अतः वादी को दोनों ही करना चाहिये || ३४ ॥
सूत्र - तत्त्वनिर्णयेष्ठ द्विविधः स्वात्मनि परात्मनि च ।। ३५ ।। व्याख्या -- तत्त्वनिर्णयाभिलाषी दो प्रकार का परात्मतत्त्वनिर्णयेच्छु | जो सिद्धान्त प्रतिपादित तत्त्व को निर्णयेच्छु है और जो परात्मा में तत्व के निर्णय हो निर्णयेच्छु है ।। ३५ ।।
होता है— एक स्वात्मतत्त्व निर्णयेच्छु दूसरा समझने का अभिलाषी होता है वह स्वात्मतत्त्व जाने का अभिलाषी होता है वह परात्मतत्त्व
१. हरिभद्रसूरि ने वितण्डा को शुष्कवाद, जल्प को विवाद और बाद को धर्मबाद कहा है। हेमचन्द्रसूरि ने वितण्डा को कथा ही नहीं माना है। उनका कहना है कि जिसका कोई पक्ष नहीं उसकी बात ही नहीं सुननी चाहिये । प्रतिपक्षस्थापनाहीनायां वितण्डायाः कथात्वायोगात् वैतष्टिको हि स्वपक्षमभ्युपगम्या स्थापयन् यत्किञ्चिदवादेन परपक्षमेण दूषयन् कथमवधेयवचनः । प्रमाणमीमांसायाम् ॥