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न्यायरमसार: बठ अध्याय
अर्थनय कहा गया है । तथा शारद, समभिरूढ और एवंभूत ये तीन नय शब्द के आश्रित होकर अपने-अपने विषयभूत पदार्थ का प्रतिपादन करते हैं, इनमें शब्दों के लिंग आदि बदल जाने पर अर्थ बदल जाता है। इसलिये ये सबदनय कहे गये हैं ॥२६।। नयों के विषय में अल्पबहुत्व :
सूत्र--पश्चानुपथ्य तेबहुविषयाः पूर्वानुपा चाल्पविषयाः ॥२७॥
व्याख्या-सात नयों में पहले पहले के नय अधिक विषय वाले हैं और पिछले-पिछले मय कम विषय बाले हैं। एवंभूतनय की अपेक्षा समभिरूठनय अधिक विषय वाला है, समभिरूढनय की अपेक्षा शब्दमय अधिक विषयवाला है, शब्दनय की अपेक्षा ऋजुसूत्रनय अधिक विषयवाला है, ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा व्यवहारनय अधिक विषयवाला है, व्यवहारनय की अपेक्षा संग्रहनय अधिक विषयवाला है और संग्रहनय की अपेक्षा नैगमनय अधिक विषयवाला है। यही पश्चानुपूर्वी शब्द द्वारा यहाँ प्रकट किया गया है तथा जब पूर्वानुपूर्वी द्वारा इनके विषय का विचार किया जाता है तब नैगमनय सब से अधिक विषयवाला है । नैगमनय की अपेक्षा संग्रहनय कम विषयवाला है । संग्रहनय की अपेक्षा व्यवहारनय कम विषयवाला है। व्यवहारनय का अपेक्षा ऋजुसूत्रनय कम विषयवाला है। ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा शब्दनय कम विषयवाला है । शब्दनय की अपेक्षा समभिरूढनय कम विषयवाला है और समभिरूढनय की अपेक्षा एवं भूतनय कम विषयवाला है सरह ले ग या बिगार निभा गया है। इस सम्बन्ध में हमें यों समझना चाहिये कि पश्चानुपूर्वी की अपेक्षा सब से कम बिषयनाला एवंभूतनय है और सबसे अधिक विषयवाला नैगमनय है । पूर्वानुपूर्वी की अपेक्षा सबसे अधिक विषयवाला नैगमनय है और सबसे कम विषयवाला एवंभूतनय है। नैगमनय भाव और अभाव इन दोनों को विषय करता है । संग्रहनय केवल भाव को ही विषय करता है । व्यवहारनय सत्ताविशिष्ट पदार्थों का विधिपूर्वक भेद-प्रभेद करता हुआ उन्हें विषय करता है । ऋजुसूत्रनय केवल वर्तमान क्षण में जो पर्याय हो रही है उसे विषय करता है। शब्दनय कालादि के भेद को लेकर पदार्थ में भेद मानता है। समभिरूढनय पर्यायवाची शब्दों में भी भिन्नार्थता मानता है तथा एवंभूतनय क्रियायुक्त पदार्थ को ही अपना वाच्य मानता है। इस विषय को और अधिक स्पष्ट जानने के लिये न्यायरत्नवली टीका के अनुवाद को देखना चाहिये ।।२७।। नयसप्तभंगी :
सत्र-विधिनिषेधाभ्यां नयवाक्यमपि सप्तभंगात्मकम् ॥ २८ ॥
व्याख्या-नयवाक्य भी अपने विषय में प्रवृत्ति करता हुआ विधि और निषेध की विवक्षा को लेकर सात भंगोंवाला हो जाता है । सूत्रस्थ अपि शब्द यही प्रकट करता है कि यह नयवाक्य भी अपने विषय में विधि और निषेध को आश्रित करके प्रमाणवाक्य की तरह ही सप्तभंगी को प्राप्त होता है। नयवाक्य विकलादेश होता है अर्थात् अनन्तधर्मविशिष्ट वस्तु में से किसी एक धर्म को मुख्य करके और शेष धौ को गौण करके उस धर्म द्वारा उस वस्तु का कथक होता है । इस प्रतिपादन में जिस धर्म को वह किसी विवक्षावश प्रधान करता है उसी धर्म को वह किसी दूसरी विवक्षावश अप्रधान भी कर देता है। इसी का नाम उस धर्म का विधि-निषेध करना है । एक धर्म के कथन करने में सात प्रकार के उद्भूत