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कारण इस शाखा का नाम वैभाषिक पड़ा। इस अतएव इसका नाम योगाचार पड़ गया। इस शाखा के प्रसिद्ध दार्शनिक दिङ नाग और धर्मकीर्ति शाखा के मुख्य विद्वान् है-मैत्रेयनाथ, आर्य असम हैं । दिड नाग गुरु हैं, और धर्मकीर्ति शिष्य हैं। और आयं वसुबन्धु । आर्य असंग का काल १०० इन वैभाषिकों का मत है कि ज्ञान और ज्ञेय दोनों ईस्वी माना गया है। वसुबन्धु ने विज्ञानवाद को सत्य हैं, मिथ्या नहीं। पदार्थ की सत्ता मानते हैं। जन्म दिया। विज्ञानवाद बौद्ध दर्शन का चरम
सूत्रान्त अथवा बुद्ध के मूल वचनों के आधार विकास कहा जा सकता है। विज्ञानवाद के अनुपर विगतको वातान्तिन कोते हैं। सार एकमात्र विज्ञान ही परम सत्य है। बाह्य अतः इस शाखा का नाम सौत्रान्तिक पड़ गया। वस्तु, विज्ञान का ही प्रतिबिम्ब है । उसकी वास्तइस शाखा के मुख्य प्रवर्तकः ईस्वी सन् ३०० में होने विक सत्ता नहीं है । विज्ञानवाद के बाद में, बौद्ध वाले 'कुमारलब्ध हैं। सोचान्तिकों का मत है कि न्याय का विकास हुआ। न्याय के प्रवर्तक हैंज्ञान सत्य है, परन्तु य की सत्यता अनुमान के दिङ नाग और धर्मकीर्ति । साय प्रवेश, प्रमाण द्वारा ज्ञात होती है । ज्ञान का अर्थ है-प्रमाण और समुच्चय, प्रमाण यातिक, न्याय विन्द, हेत बिन्द शेय का अर्थ है-प्रमेय । अतः बौद्ध ताकिकों ने और बौद्ध तर्क भाषा-बौद्धों के प्रसिद्ध न्याय प्रमाण दो माने हैं-प्रत्यक्ष और अनुमान । दिड- ग्रन्थ हैं ।। नाग बौद्ध न्याय के पिता माने जाते हैं। धर्मकीर्ति .
जन सम्प्रदाय ने बौद्ध न्याय को चरम शिखर पर पहुंचा दिया था।
जैन धर्म और दर्शन, अत्यन्त प्राचीन हैं । जैन
परम्परा के प्रवर्तक अथवा संस्थापक तीर्थकर होते महायान सम्प्रदाय का उदय हीनयान सम्प्रदाय की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था। महायान की।
हैं। सर्वप्रथम तीर्थंकर भगवान्' ऋषभदेव थे, दो शाखाएँ हैं-माध्यमिक और योगाचार । इनमें मार पर
और चरम तीर्थकर भगवान महावीर थे। जैन से मध्यम मार्ग का अनुसरण करने के कारण पहली ।
। परम्परामान्य आगम भगवान महावीर की वाणी हैं। शाखा का नाम माध्यमिक पड़ा। इस शाखा के
" महावीर और बुद्ध, दोनों समकालीन थे। महाबीर मुख्य प्रवर्तक ईस्वी सन् १४३ के लगभग होने वाले ।
" ने जो कुछ बोला था, वह आगम कहलाया और बुद्ध आचार्य नागार्जुन थे । माध्यमिकों का मत है, कि
ने कुछ बोला था, वह त्रिपिटक कहाता है । आगम, ज्ञय तो असत्य है ही, ज्ञान भी सत्य नहीं है । इस
जैन सम्प्रदाय के शास्त्र हैं। धर्म और दर्शन का शाखा के विद्वान् का सिद्धान्त है, शून्यवाद । शुन्य- मूल उद्गम, आगम एवं शास्त्र हैं । जैन परम्परा घाद का अर्थ, जैसा कि लोग समझते हैं-अभाव इन आगमा में अथाह आस्था रखती है, और इनके नहीं है। शून्यबाद का अर्थ है, कि वस्तु का निर्व- विधानों के अनुसार साधना होतो है । मूल आगम चन नहीं किया जा सकता, क्योंकि वस्तु अनिर्वच- पांच विभागों में विभक्त है-अंग, उपांम, मूल, छेद नीय है । न वह सत् है, न असत्, न उभय है, और और चूलिका। न अनुभव ही है।
जैन परम्परा का दार्शनिक साहित्य, चार युगों महायान की दूसरी शाखा का नाम है-योगा- में विकसित हुआ है-आगम युग. दर्शन युग, अनेचार ! योगाचार शाखा यौगिक क्रियाओं में आस्था कान्त व्यवस्था युग और न्याय युग, तर्क युग अथवा रखती है, और मानती है, कि बोधि की उपलब्धि प्रमाण युग । आगम युग में, मूल आगम और उसके एकमात्र योगाभ्यास के द्वारा ही हो सकती है। व्याख्या ग्रन्थ-नियुक्ति, भाष्य, चूणि और टीका