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न्यायरत्नसार चतुर्थ अध्याय
- वर्णों का मेल जब ऐसा होता है कि उसमें किसी और वर्ण को मिलाने की आवश्यकता न रहे और मिले हुए वही वर्ण किसी अर्थ का बोध करा दें तभी वे पद कहलाते हैं। निरर्थक वर्ण समूह को पद नहीं कहा गया है। इसी प्रकार सार्थक पदों का समुदाय वाक्य कहा गया है । यह वाक्य भी अन्य वाक्यान्तरवर्ती पदों की स्वार्थबोध कराने में अपेक्षा नहीं रखता है ॥७॥
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शब्द में प्रमाणता अप्रमाणता की व्यवस्था :
सूत्र - निवारणप्रवोपयत्स्वार्थप्रकाशनं शब्दे सङ्क ेताधीनमपिवेधे प्रमाणेतरता वक्तु गुण-दोष निश्रा ॥ ८ ॥
अर्थ- जिस प्रकार आवरण के व्यवधान से विहीन दीपक अर्थ को - इष्टानिष्ट पदार्थ कोप्रकाशित करता है, उसी प्रकार से स्वार्थप्रकाशन की स्वाभाविक शक्ति से युक्त हुआ भी शब्द सङ्केत की सहायता से अर्थ का प्रकाशन करता है- ज्ञान करता है। परन्तु उस अर्थज्ञान में जो प्रमाणता और अमाता आती है वह वक्ता के गुण और दोषों को लेकर आती है ।
याख्या -- दीपक चाहे पदार्थ अच्छा हो चाहे बुरा हो उसका स्वभाव उसे प्रकाशित कर देने का है । उसी प्रकार वक्त द्वारा प्रयुक्त शब्द का स्वभाव अर्थ का बोध करा देने का है। चाहे वह पदार्थ इष्ट हो चाहे अनिष्ट हो, वास्तविक हो या अवास्तविक हो, कैसा ही क्यों न हो ।
"वक्तुः प्रमाण्याद्वचसि प्रामाण्यं" वक्ता की प्रमाणता से ही उसके वचनों में प्रमाणता आती है । इस कथन के अनुसार वक्ता यदि गुणवान् है तो उसके वचनों में प्रमाणता आने से वचनजन्य बोध में भी प्रमाणता आवेगी और वक्ता यदि सदोष है तो उसके बचनजन्य बोध में अप्रमाणता आवेगी || ||
सूत्र-- शब्द की प्रवृत्ति आवेश मेवाच्छः स्वार्थे विधितिषेधाभ्यां सप्तभंग्यालिग्यते ॥६॥ अर्थ-विवक्षा के दश से शब्द अपने वाच्य अर्थ का प्रतिपादन करता हुआ उसमें विधि और निषेध की कल्पना से सप्तभङ्गी द्वारा आलिङ्गित होता है ।
व्याख्या - अन्तर्वर्ती एवं वहिर्वर्ती जितने भी जीवादिक और अजीवादिक पदार्थ हैं वे सब अनन्तधर्म वाले हैं एकधर्म वाले नहीं हैं। क्योंकि एकान्ततः एक ही धर्म वाले वे हैं ऐसा ही यदि शब्द प्रतिपादन करता है मान लिया जाने तो वस्तु में वस्तुत्व ही नहीं बन सकने के कारण उनकी स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती है। अतः जब शब्द "यह घट है" ऐसा प्रतिपादन करता है तो वह विवक्षा के वश से सप्तभङ्गी को धारण करने वाला हो जाता है। इसके विशेषार्थं को जानने के लिये न्यायरत्नावली टीका का अवलोकन करना चाहिये || ||
सप्तभङ्गी का स्वरूप :
सूत्र - एकक धर्म प्रश्न विवक्षातोऽविरोधेनव्यस्त समस्त विधिनिषेधयोः प्रतिपादकः स्वाि ह्रितः सप्तधा वाक्यप्रयोगः सप्तभंगात् ॥ १० ॥
अर्थ -- एक वस्तु में के किसी एक धर्म सम्बन्धी प्रश्न के अनुरोध से विवक्षा से सात प्रकार के बचन प्रयोग को सप्तभङ्गी कहा गया है । वह वचन स्यात् पद से सहित होता है। और उसमें कहीं विधि की एवं कहीं निषेध की विवक्षा होती है और कहीं दोनों की विवक्षा होती है ।
१. आदेश भेदोदित सप्तभङ्गमिति वचनात् ।
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