________________
न्यायरत्नसार तृतीय अध्याप
| २५
होता है। क्योंकि विवक्षित दृष्टान्त में अन्यथानुपपत्ति के निर्णय निमित्त विवाद हो जाने पर दूसरे दृष्टान्त की उसके निर्णय के लिए आवश्यकता होगी। दूसरे दृष्टान्त में तीसरे दृष्टान्त की— इस तरह दृष्टान्तरों की अपेक्षा होते-होते कहीं भी अन्यथानुपपत्ति के निर्णय की व्यवस्थिति नहीं बन सकेगी ॥ ३७ ॥
सूत्र - उपनयनिगमनयोरप्येवमेव ॥ ३८ ॥
अर्थ – अनुमान का अङ्ग उदाहरण – दृष्टान्त-— नहीं है। जिस तरह यह कहा गया है उसी प्रकार उपनय और निगमन भी अनुमान के अङ्ग नहीं हैं यह समझ लेना चाहिये ॥ ३८ ॥
हेतुभेद कथन :
साध्य-सत्ताइसत्तासाधको ह्य् पलध्यनुपलब्धि
व्याख्या हेतु दो प्रकार का कहा गया है-एक उपलब्धि और दूसरा अनुपलब्धिरूप हेतु । उपलब्धि हेतु विधिरूप और अनुपलब्धिरूप हेतु प्रतिषेधरूप होता है। पर्वत में अग्नि सिद्ध करने वाला धूमरूप हेतु उपलब्धिरूप - विश्वरूप होता है । "हाँ धूम नहीं है क्योंकि वहाँ अग्नि नहीं है" यहाँ अग्नि की अनुपलब्धिरूप जो हेतु है वह प्रतिषेधरूप - अनुपलब्धिरूप है। उपलब्धिरूप हेतु या अनुपलब्धिरूप हेतु ये दोनों ही हेतु अपने साध्य की सत्ता के भी साधक होते हैं और उसका के भी माधक होते हैं । इस तरह विधिरूप - उपलब्धिरूप हेतु दो तरह का और अनुपलब्धिरूप हेतु दो तरह का होता है। इस प्रकार मे हेतुओं के चार भेद हो जाते हैं- विधिरूप विधिसाधक ( १ ) विधिरूप प्रतिषेक साधक (२), प्रतिषेधरूप विधिसाधक (३), और प्रतिषेधरूप प्रतिषेधसाधक ( ४ ) । इन चारों को दूसरे शब्दों में कह सकते हैं - अरुद्धोपलब्धि (१), विरुद्धोपलब्धि (२) अविरुद्धानुपलब्धिः (३) और बिरुद्धानुपलब्धि (४) । इस प्रकार से तथा उन्हीं के उत्तरभेदों से हेतु में अनेकविधता आती है ॥ ३६ ॥
इसी का स्पष्टीकरण मागे के सूत्रों से किया जाता है।
सूत्र - विरुद्धा विरुद्धो पल कथनुपलन्धिभेदात्
रूप हेतुरनेकविधः ॥ ३७ ॥
साध्याविरुद्ध व्याप्योपलब्धि का उदाहरण :–
सूत्र - ध्वनिः परिणतिमान् प्रयत्नानन्तरीयकत्वादितिप्रथमा ।। ४० ।।
अर्थ – ध्वनि - शब्द परिणति वाला है- अनित्य है क्योंकि वह प्रयत्नपूर्वक होता है। जो प्रयत्नपूर्वक होता है, वह अनित्य होता है जैसे घट, अथवा जो अनित्य नहीं होता वह प्रयत्नपूर्वक उत्पन्न नहीं होता जैसे वन्ध्या पुत्र ।
व्याख्या - शब्द प्रयत्नपूर्वक होता है अतः वह अनित्य है । इस प्रकार से यह अन्वय व्यतिरेक द्वारा साध्य से अविरुद्ध व्याप्य की उपलब्धि विधिसाधक कही गई है। यहाँ प्रयत्नपूर्वक होने रूप हेतु "परिणतिमत्त्व" साध्य का व्याप्य है, और "परिणतिमत्त्व" यह व्यापक है। क्योंकि परिणतिमत्व तो मेघ, इन्द्रधनुष आदि में भी रहता है, पर यहाँ प्रयत्नान्तरीयकत्व नहीं रहता है। इस तरह यह हेतु साध्य से अविरुद्ध व्याप्योपलब्धिरूप है। इसी तरह "घड़ा" स्थूल परिणामी है, क्योंकि वह मनुष्य के द्वारा बनाया जो जाता है। जो किसी के द्वारा बनाया जाता है, वह स्थूल परिणामी होता है— जैसे वस्त्र । परिणामी स्थूल नहीं होता वह किसी मनुष्य के द्वारा बनाया नहीं जाता जैसे आकाश परमाणु आदि । यहाँ किसी के द्वारा बनाया जाना रूप हेतु स्थूल परिणाम रूप साध्य का व्याप्य है । क्योंकि बहुत सी चीजें ऐसी हैं जो स्थूल परिणामी तो होती हैं, परन्तु किसी मनुष्य के द्वारा में बनाई नहीं जाती है, जैसे- इन्द्रधनुष आदि। यहाँ