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न्यायरत्नसार तृतीय अध्याय
व्याख्या - यह सूत्र जैन मुनियों में स्थानकवासित्व के कारणभूत २० स्थानों के समाराधन के कारण से ही तीर्थंकर प्रकृति की बन्धकता आती है, अतः वह श्रेष्ठ है, इस बात को समझाने के लिये कहा गया है । जो इस प्रकार के नहीं हैं वे श्र ेष्ठ नहीं हैं जैसे जैनाभास । ये जैनाभास शास्त्रनिषिद्ध द्रव्यपूजा को मुक्ति का कारणभूत मानते हैं । अतः वे २० स्थानकों के सेवन द्वारा तीर्थंङ्कर प्रकृति के बन्धक नहीं होने से प्रशरत नहीं कहे गये हैं || २ ||
मुख पर मुखवस्त्रिका का बाँधना आगमानुकूल है, ऐसा कथन :--- सोरमुख व स्त्रियां
सूत्र - जैन मुनि खे श्रेष्ठत्वेन ज्ञापितत्वात् ॥ ३ ॥
बध्नीयादागमे तदबन्धनापेक्षया तद्बन्धनस्य
अर्थ - जैन मुनि मुख पर सदोरक मुखवस्त्रिका को अवश्यमेव बांधे क्योंकि आगम में उसके नहीं बांधने की अपेक्षा उसका मुख पर बांधना ही श्र ेष्ठ रूप से कहा गया है।
व्याख्या- -पूर्व में २० स्थानों का समाराधक होने से जैन मुनियों में श्र ेष्ठता का प्रतिपादन किया गया । अब इस सूत्र द्वारा यह सिद्ध किया जा रहा है कि यदि मुनि मुख पर सदोरक मुखवस्थिका नहीं बांधता है तो वह जिनाज्ञा का विराधक होने के कारण सच्चा जैन मुनि नहीं है क्योंकि आगम में इसी प्रकार की आज्ञा है || ३ ||
मुख पर मुस्त्रिका बाँधने में युक्ति का कथन :
सूत्र - मुखे मुखवस्त्रिका बन्धनं श्रेष्ठं सावय कर्म परिवर्जकस्यात् ॥ ४ ॥
अर्थ- मुख पर सदोरक मुखवस्त्रिका का बाँधना श्रेष्ठ है क्योंकि यह इसी रूप में सावध कर्म की परिवर्जना कराने वाली है ।
व्याख्या - मुख पर सदोरक मुखवस्त्रिका का बाँधना श्रेष्ठ इसलिये है कि इसके बाँधने से प्राणियों के प्राण-विघात आदि होने रूप सावध कर्म नहीं हो पाते हैं । नहीं बाँधने पर भाषण करते समय वायुकायिक जीवों की मुख वायु से विराधना का होना बच नहीं सकता है। मशकादि का मुख में प्रवेश भी हो जाया करता है । अतः निरवद्य भाषा के लिये, वचनादि गुप्ति के लिये, सचित्त रजोरेणु के प्रवेश को रोकने के लिये, संपातिम जीवों की रक्षा के लिये एवं प्रमार्जनादि कार्यों के लिये मुखवस्त्रिका का मुख पर बाँधना वावश्यक कर्म है ॥ ४ ॥
दोरा बिना मुखयस्त्रिका से मुँह ढकना - यह अप्रशस्त है, ऐसा कथन :--
सूत्र - बन्धनरहित मुखवस्त्रिकथा मुखपिधानमप्रशस्तं जीवरक्षाभावात् || ५ ||
अर्थ -- बन्धनविहीन मुखवस्त्रिका से मुंह का ढकना अप्रशस्त है क्योंकि इस स्थिति में जीवों की रक्षा नहीं हो पाती है ।
व्याख्या काय के जीवों की रक्षा के निमित्त मुखवस्त्रिका मुँह पर बाँधना आवश्यक है । ऐसा किये बिना षट्काय के जीवों की रक्षा होना असंभव है ।। ५ ।।
परोक्ष प्रमाण का लक्षण :---
सूत्र - वैशद्यविहीनं ज्ञानं परोक्षम् ।। ६ ।।
अर्थ - जो ज्ञान विशदता - स्पष्ट प्रतिभास-से रहित होता है वही ज्ञान परोक्ष कहा जाता है ।