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न्यायरत्नसार : प्रथम अध्याय
|५ ही एक वास्तविक तत्त्व है। सौत्रान्तिक जो कि बौद्धों का ही एक सम्प्रदाय विशेष है, बाह्य पदार्थ को सद् प मानता है । इन सब मान्यताओं के विरुद्ध जैन दर्शन अन्तर्जगत् और बाह्य जगत् दोनों को वास्तविक मानता है। अतः इस सत्र से सत्रकार ने बौद्धदर्शन और वेदान्तदर्शन की एकान्त मा दूर किया है, ऐसा जानना चाहिये । यहाँ "ज्ञानस्वरूपभिन्न जेयार्थः परः" ऐसा जो सूत्र कहा गया है, उस से सुत्रकार का ऐसा अभिप्राय है कि ज्ञान में जो प्रमाणता आती है, वह प्रतिभात जेयार्थ की यथार्थता से ही आती है, अपने स्वरूप के जान लेने से नहीं आती है ।। १० ।। ज्ञान में स्वपरावभासकर का समर्थन :--
सूत्र-शानस्य स्वपशवभासकत्वमेव स्व-पर-व्यवसायः ।। ११ ।।
अर्थ-ज्ञान में जो स्व की और पर की अवभासकता है, वही ज्ञान का स्व और पर का व्यवसाय है।
___ व्याख्या-झान जब अपनी ओर झुकता है, तब वह अपने को जानता है, यही ज्ञान में स्वव्यवसाय है और जब वह पर-पदार्थ की ओर झुकता है तब वह उस पदार्थ को जानता है, यही उसका पर-व्यवसाय है। जिस प्रकार दीपक पदार्थों को प्रकाशित करने के साथ ही अपने को भी प्रकाशित करता है-अर्थात् दीपक को देखने के लिए जैसे अन्य दीपक की आवश्यकता नहीं पड़ती है, उसी प्रकार प्रमाण को जानने के लिए दूसरे प्रमाण की आवश्यकता नहीं पड़ती। यही ज्ञान में स्व-परन्व्यवसायता है। ज्ञान को स्व-थ्यवसायी मानने का प्रयोजन यही है कि कोई ऐसी आशङ्का कर सकता है कि "जैसा पदार्थों को जानने में कारण ज्ञान है तो शान को जानने में कारण क्या है।"
प्रश्न-क्या सभी प्रकार के ज्ञान स्व-परिच्छेदक होते हैं या केवल प्रमाणभूत ज्ञान ही स्वपरिच्छेदक होता है ?
उत्तर–सभी प्रकार के ज्ञान स्वपरिच्छेदक होते हैं और इस स्वपरिच्छेद की दृष्टि से कोई ज्ञान प्रमाण या मिथ्या ज्ञान नहीं होता । ज्ञान में सच्चापन या झूठापन विषय के सच्चेपन या झूठेपन पर निर्भर है ॥ ११ ॥ ज्ञान में प्रमाणता का कथन :
सूत्र--प्रतिभातविषयाव्यभिचारित्वं प्रामाण्यम् ।। १२ ॥
अर्थ-प्रमेय पदार्थ जैसा है, उसे उसी रूप से जानना यही प्रतिभातविषयअव्यभिचारित्व है। यही ज्ञान में प्रमाणता है।
व्याख्या-जो पदार्थ जिस तरह का है, उसी तरह का उसे जानने वाला ज्ञान प्रमाण है और यही उसकी सच्चाई है कि जो पदार्थ ज्ञान के द्वारा जैसा जाना गया है, वैसा ही वह उपलब्ध होता है। यदि ज्ञान से जाना गया पदार्थ उत्तर काल में बसा उपलब्ध नहीं होता है तो उस पदार्थ को जानने वाला ज्ञान प्रमाणभूत नहीं माना जा सकता, यही ज्ञान की अप्रमाणता है ।। १२ ।। प्रमाणता की उत्पत्ति और ज्ञप्ति का कथन :
सूत्र-तवुत्पत्ती परत एव स्वनिश्चये तु अभ्यासानभ्यासापेक्षया स्वतः परतश्च ॥ १३ ॥ १. "ज्ञानस्य प्रामाण्यात्रामाण्ये अपि हिरापेक्षयेव न स्वरूपापेक्षया"
-लघीयस्त्रयटोकायाम् । 'भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणाभासनिद्रवः, बहिः प्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभंघते"
-देवागमे।