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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : षष्ठम अध्याय, सूत्र २८-२९
वाक्यं सप्तभङ्गात्मकं पूर्व प्रतिपादितम् तथैव स्वविषये विधिनिषेधाभ्यां नयवाक्यमपि सप्तभङ्गात्मकं भवतीति ज्ञातव्यम यथा प्रतिभङ्ग अभेदवृत्त्याऽभेदोपचारेण वा सकलादेश स्वभाव प्रमाणसप्तभङ्गी पूर्व प्रतिपादिता तथवाभेदवृत्ते रभेदोपचारस्य वाऽमाश्रयणे प्रतिभङ्ग विकलादेशस्वभावा नयसप्तमजी भवति अखण्डात्मकस्य वस्तुनः खण्ड-खंड कृत्वा प्रतिपादकं वाक्यं नयः अर्थात् जीवाजीवरूपस्य सर्वस्यैव वस्तुनोऽनन्त धर्मात्मकत्वेनाखण्डात्मकस्यैककयर्ममधिकृत्य विधिनिषेधाभ्यां जायमानात्सप्तविधप्रश्नवशात् सप्तधोत्तररूपं यत् वाक्यं प्रवर्तते तदेव नयवाक्यम् ।।२८।।
हिन्दी च्याख्या-बिधि और निषेध को लेकर नययाक्य भी सात भङ्गों वाला होता है। सूत्र में जो अपि शब्द आया है वह इसी बात को सूचित करता है कि यह नथ वाक्य भी अपने विषय में विधिनिषेध को आधिन करके प्रमाण ताम्य की दी मात अड़ों वाला होता है । प्रमाण वाक्य सात भङ्गों वाला होता है यह बात हमने चतुर्थ अध्याय में स्पष्ट कर दी है। प्रमाण वाक्य सकलादेश स्वभाव वाला होता है और नगवाक्य विकलादेश स्वभाव वाला होता है। राकलादेश स्वभाव वाले प्रमाणवाक्य में वस्तुगत अनन्त धर्मों की प्रतिपादित एक धर्म के साथ अभेदवृत्ति और अभेद का उपचार किया जाता है और नयवाक्य में यह सब कुछ नहीं किया जाता है किन्तु एक ही धर्म की किसी अपेक्षा मुख्यता और गौणता करके वस्तु का प्रतिपादन किया जाता है । इस प्रतिपादन में जिस धर्म को जिस किसी अपेक्षा मूख्य किया गया होता है उसी धर्म को किसी दूसरी अपेक्षा गोण कर दिया जाता है । इस तरह एव धर्म के प्रतिपादन में उद्भूत सात प्रकार के प्रश्नों के उत्तर में सात भंगात्मक विकल्प होते हैं इन्हीं का नाम नय सप्तभंग है । वस्तु अखण्डात्मक है उसका खण्ड-खण्ड करके विवेचन करना यह काम नय का है जीवाजीवादिरूप एक-एक वस्तु अनन्त धर्मों से युक्त है । नय वाक्य के द्वारा इन अनन्त धर्मों का एक साथ प्रतिपादन नहीं होता है अतः नय वाक्य उन अनन्त धर्मों में से एक-एक धर्म को लेकर के उस वस्तू का प्रतिपादन किया करता है । इस प्रतिपादन में शेष धर्मों का वह तिरस्कार नहीं करता है किन्तु उनके प्रति वह उदासीन भाव रखता है यही सुनय है और यह सुनय ही सप्त भंगात्मक होता है।
सूत्र-नयस्य फलमपि तस्मात्कथंचिद्भिन्नमभिन्नं चेति ॥ २६।।
संस्कृत टीका-यथा प्रमाणस्य फलं प्रमाणात्कथंचिद् भिन्नं कथंचिदभिन्तं प्रतिपादित तथैव नयफलमपि वस्त्वंशाज्ञाननिवृत्तिरूपं साक्षात्फलं वस्त्वंशाविषयक हानोपादानोपेक्षाबुद्धिरूप परम्पराफन्नं चेति तस्मात् नयात् कथंचिद् भिन्नं कथञ्चिदभिन्नं च बोद्धव्यम् एकान्ततो तस्यभिन्नत्वेन तस्येदमिति नयफलभावव्यवहारो न स्यात् सर्वधाऽभिन्नत्वे एक एवावशिष्टो भवेत् न तदुभयम् अतः तत् तस्मात्कथंचित् भिन्नमभिन्नं च मन्तव्यम् ।।सू० २६।।
हिन्दी व्याख्या-नय का फल भी नय से कथञ्चित् भिन्न और कथञ्चित् अभिन्न होता है । जिस प्रकार प्रमाण का फल प्रमाण से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न पहले प्रतिपादित किया जा चुका है उसी प्रकार से नय का वस्त्वंश विषयक हान उपादान और उपेक्षारूप परम्पराफल नय से कथंचित भिन्न और कथंचित् अभिन्न कहा गया है । एकान्त रूप से नय का फल यदि नय से भिन्न माना जाये तो यह नय का फल है ऐसी व्यवस्था नहीं बन सकती है और यदि नय का फल नय से सर्वथा अभिन्न माना जावे तो यह नय है और यह उसका फल है ऐसा व्यवहार नहीं बन सकता है अतः नय का फल नय से कथंचित भिन्न और कथंचिद् अभिन्न है ऐसा ही मानना युक्तियुक्त है।