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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : पंचम अध्याय, सूत्र १६-१७
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सम्बन्ध से जायमान मन्निकर्ष को माना है; पर यह सन्निकर्ष जड़ होने से अज्ञानात्मक है । इसलिये यह प्रमाणात्मक ज्ञान का विशेष स्वरूपभूत नहीं हो सकता। क्योंकि प्रमाणात्मक ज्ञान जो होता है वह चेतन स्वरूप होता है और स्वपर का व्यवसायी होता है। अतः सन्निकर्ष यह प्रमाणस्वरूपाभासरूप है कयोंकि यह अज्ञानात्मक है । इसी प्रकार स्व को ही जानने वाला ज्ञान और केवल को पर को ही जानने वाला ज्ञान प्रमाणस्वरूपाभासभूत है तथा भी शान अपने आपको नहीं जानता है किन्तु करण ज्ञान के द्वारा जो जाना जाता है वह ज्ञान भी प्रमाणस्वरूपाभासभूत ही कहा गया है, इसी प्रकार जो ज्ञान पर पदार्थों को नहीं जानने वाला माना गया है, तथा जो निर्विकल्पक दर्शनरूप माना गया है, जो ज्ञान संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रूप होता है वे सब ज्ञान स्व-पर व्यवसायात्मक प्रमाण ज्ञानस्वरूप के समक्ष प्रमाण स्वरूपाभास की कोटि में ही आते हैं। क्योंकि प्रमाण का स्वरूप समारोप का विरोधी होता है ॥१५॥
सूत्र-सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष लक्षणरहितं तद्वदवभासमानं सांव्यवहारिक प्रत्यक्षाभासम् ।।१६।।
संस्कृत टीका-पूर्व सांव्यवहारिक प्रत्यक्षमिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्त भेदाद् द्विविधं प्रोक्तम् । तत्रइन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतो वेशद्य सांध्यवहारिक प्रत्यक्ष लक्षणं निगदितम् । अस्माल्लक्षणाद्विपरीत लक्षणोपेतमिन्द्रियजमनिन्द्रियजं च प्रत्येक सदाभासं ज्ञातव्यम् । यथा-मेघेषु जायमानं गन्धर्व नगर ज्ञानमिन्द्रियनिबन्धनं सांव्यवहारिक प्रत्यक्षाभासं दुःखं च जायमानं सुख ज्ञानमनिन्द्रियनिबन्धनं सांव्यवहारक प्रत्यक्षाभासमवगन्तव्यम् ॥१६॥
अर्थ-जो ज्ञान परमार्थतः सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के लक्षण से तो हीन हो पर सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के जैसा जान पड़ता हो वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्षाभास है।
हिन्दी व्याख्या- सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष पहले इन्द्रियज और अनिन्द्रियज प्रत्यक्ष के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। इन्द्रियों से जो एकदेश निर्मलता लिये हुए ज्ञान होता है वह इन्द्रियज सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है और मन को सहायता से जो एकदेश निर्मल ज्ञान होता है वह अनिन्द्रियज सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है । इस प्रकार से सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का लक्षण कहा गया है परन्तु जो ज्ञान इस लक्षण से युक्त न होकर इससे विपरीत लक्षण से युक्त होता है वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्षाभास हैं । जैसे मेघों में गन्धर्व नगर का ज्ञान और दुःख में सुख का ज्ञान । मेघों में जायमान गन्धर्व नगर ज्ञान इन्द्रिय सांव्यवहारिक प्रत्यक्षाभास का और दुःख में जायमान सुख ज्ञान अनिन्द्रियज सांव्यवहारिक प्रत्यक्षाभास का उदाहरण
सूत्र--मनःपर्यय केवलज्ञानाइते विकलं पारमार्थिक प्रत्यक्षाभासम् ॥ १७ ॥
संस्कृत टीका-पारमार्थिक प्रत्यक्षवद् यदवभासते तत्पारमार्थिक प्रत्याक्षाभासं तच्च विभङ्गरूपम् । मनःपर्यय केवलज्ञानयोः पारमार्थिक भूतयोस्तदा भासत्वासंभवात् । पारमाथिकं प्रत्यक्षं पूर्व सकल विकल विकल्पाभ्यां द्विप्रकारकमुक्तम् । तत्र सकल पारमाथिकं प्रत्यक्षं केवलज्ञानं तत्तदाभासरूपं न भवति संपूर्ण स्वावरण क्षयोद्भूतत्वात् । मनःपर्ययज्ञानावरण क्षयोपशमाज्जायमानं मनःपर्यय ज्ञानं तु मिथ्यादृष्टिष्वसंभवात्तदाभासरूपं न जायते । अवधिज्ञानं च मिथ्याष्टिष्वपि सद्भावात् तत्र विभंगाख्यया प्रसिद्ध सत् तदाभासरूपतां धारयति, मिथ्यादृष्टेः शिवराजर्षेर्वदसंख्यात द्वीप समुद्रात्मकेषु मध्यलोकेषु सत्स्वपि सप्तद्वीप समुद्रज्ञानमभूत् तद्विभंगाख्यं ज्ञानमवगन्तव्यम् ।
हिन्दी व्याख्या--मनःपर्यय और केवलज्ञान के सिवाय जो विकल प्रत्यक्ष अवधिज्ञान कहा गया है वही पारमार्थिक प्रत्यक्षाभासरूप होता है। जो ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष के जैसा प्रतीत होता हो-पर