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न्यायरत्न' : न्यापरतावली टीका : पंचम अध्याय, सूत्र १०
यह कहना है कि पदार्यों का जो इष्टानिष्टात्मना बिचार-ज्ञान है उससे ही उपघात और अनुग्रह होते हैं। अतः ज्ञानकुत उपघात और अनुग्रह मानने से यह क्लेद-दाह आदि कुछ भी नहीं हो सकते हैं।
उत्तर-ज्ञान उपघात और अनुग्रह का कारण नहीं हो सकता है । क्योंकि वह आत्मा का स्वरूप होने से अमूत्तिक है । अमूत्तिक पदार्थ आकाश की तरह उपधातादिक कार्यों का कारण नहीं हो सकता है। व्यवहार में जो यह कहा जाता है कि "चिन्तया जातं ते शरीरं कृशम्" हे बच्चे ! चिन्ता से तेरा शरीर कृश हो गया है । सो केवल औपचारिक ही कथन है, वास्तविक नहीं। क्योंकि चिन्ता भी तो एक प्रकार का ज्ञान विशेष ही है, इससे उपधातादिक नहीं होते हैं । फिर भी जो ऐसा कहा जाता है उसका कारण कार्य में कारण शक्ति का अध्यारोप है । क्योंकि चिन्ता-विचार विशेष का निमित्तकारण आत्मा के लिए इष्टानिष्ट पुद्गल रूप से परिणत मन ही है । अतः वह चिन्ता द्रव्यमनरूप ही है इससे यही सिद्ध होता है।
प्रश्न-जागृत अवस्था में पन का सम्बन्ध पदार्थों के साथ यदि नहीं होता है तो कोई आक्षेप जैसी वात नहीं है । परन्तु यह तो अनुभव सिद्ध बात है कि स्वप्न में मन' बाहरी पदार्थों से सम्बन्ध करता है । यदि ऐसा नहीं होता तो फिर जो इस तरह की स्वप्न में अनुभूति जीवों को होती है कि "अमुत्र मेरुशिखरादिगत पाण्डकवनादौ मदीय मनोगतम" मरा मन ममेरुपर्वत के शिखर स्थितपाण्डक वन आदि में चला गया सो नहीं होनी चाहिए । स्वप्न में प्रत्येक प्राणी को यह अनुभव में आता है कि मेरा मन अमुक जगह अमुक पदार्थ से संलग्न हो गया जैसा हमें जागृत अवस्था में उस पदार्थ का भान होता है ठीक इसी तरह स्वप्न में भी उस पदार्थ का ज्यों का त्यों भान होता है।
उत्तर- यह कहना ठीक नहीं है । कारण कि इस तरह की प्रतीति का कारण भ्रम है । जैसे स्वप्न में खाये गये लड्डू सत्य नहीं होते, क्योंकि उनके भक्षण से जगने पर भक्षक को तृप्ति आदि कुछ भी ज्ञात नहीं होती । अथवा-जैसे शिर पर अग्मि लगाकर लकड़ी को चक्राकार घुमाने से वह अग्नि भ्रम से चक्राकार प्रतीत होती है बास्तव में बह चक्राकार नहीं है, क्योंकि जब धुमाना बन्द कर दिया जाता है तब बह अचक्राकार रूप अपने स्वरूप में ही स्थित ज्ञात होती है, ठीक इसी तरह से स्वप्न में उपलब्ध
स रूप में प्रतीत होते हैं वे उस रूप में नहीं हैं क्योंकि जगने पर इनका वह रूप प्रतीति में नहीं आता । जैसे कोई-कोई प्राणी अपने आपको स्वप्न में उड़ते हुए भी देखते हैं तो क्या यह उनका देखना सत्य है ? नहीं, क्योंकि जिस समय वे अपने को स्वप्न में उड़ता देख रहे हैं, उसी समय उनके पास में रहे हुए व्यक्ति उन्हें वहीं पर सोया हुआ ही देख रहे हैं । अतः स्वप्न में जो कुछ भी प्रतीति होती है वह जागृत अवस्था में उत्कटता में अनुभूत पदार्थों के प्रबल संस्कार की जागृति से ही होती है--जागृत अवस्था में मनुष्य जिन संस्कारों से ओत-प्रोत होकर प्रबल भावना से जो-जो कार्य करता है-जिन-जिन बातों की छाप उसकी आत्मा पर जम जाती है वे ही दृश्य उसे सिनेमा की तरह स्वप्नावस्था में प्रतीत होते हैं । वे दृश्य वास्तविक इसलिए नहीं हैं कि उनसे जो कुछ फल होना चाहिए वह जागृत अवस्था में प्रतीत नहीं होता है । जब हम स्वप्न में शराब का आसेवन करते हुए अपने आपको देखते हैं तो जगने पर उसका नशा हमें प्रतीत नहीं होता। जब हम स्वप्न में अपना सिर कटा हुआ देखते हैं तो क्या जगने पर हमें हमारा सिर कटा हुआ प्रतीत होता है ? हाँ, स्वप्नोपलब्ध पदार्थ से यदि तृप्ति आदि कार्य अनुभवित होते तो स्वप्नोपलब्ध पदार्थ माना जाता । परन्तु ऐसा नहीं होता, इसलिये वह पदार्थ असत्यार्थ है-भ्रम से ही उसकी प्रतीति उस समय होती है।
प्रश्न-यदि स्वप्नोपलब्ध पदार्थ असत्यार्थ माना जावे तो फिर स्वप्मोलन्ध कामिनी आदि के