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व्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका पंचम अध्याय, सूत्र १०
गन्ध पौगलिक होने से क्रिया (गमन) युक्त हैं अतः ये स्वयं अपने को विषय करने वाली इन्द्रियों के पास अनुकूल वायु आदि द्वारा प्रेरित होकर आते हैं और उनके द्वारा जनाये जाते हैं ।
प्रश्न- चक्षु इन्द्रिय में भी बाह्य द्रव्य के सम्बन्ध से उपधान और अनुग्रह होते हुए प्रतीत होते हैं। अधिक देर तक सूर्य की ओर देखने से नेत्रों में चकाचौंधी छा जाती है । चिलकती हुई चीज देखने से नेत्रों से पानी झरने लगता है। इसी तरह हरी वनस्पति आदि देखने से नेत्रों में शीतलता आदि का भी अनुभव होता है, तथा-- यह तो प्रत्यक्ष सिद्ध ही है कि किसी व्यक्ति की दुःखती हुई आँखों को देखने से देखने वालों की आँखों में पानी भर आता है ।
उत्तर - हम यह तो निषेध नहीं करते हैं कि चक्षु में दूसरे पदार्थों द्वारा उपघातादिक नहीं होते हैं । देखने वाला व्यक्ति अब नेत्र द्वारा सूर्य और स्वभावतः शीतल चन्द्रमा आदि पदार्थों को बहुत देर तक देखता रहता है तो यह स्वाभाविक बात है कि उस विरकाल तक के निरीक्षण के सम्बन्ध से स्पर्शन इन्द्रिय की तरह नेत्र इन्द्रिय में भी जलन और शीतलता जैसी अनुभावित होती है। इससे वह बात तो सिद्ध नहीं होती कि चक्षु पदार्थ को प्राप्त कर उसका प्रकाशक होता है। हम तो केवल उतना ही कहते हैं कि जिस तरह अन्य इन्द्रियाँ पदार्थों से भिड़कर अपने-अपने विषयभूत पदार्थों का प्रकाशन करती हैं उस तरह चक्षु इन्द्रिय पदार्थों से भिड़कर या पदार्थों के स्थान तक जाकर उन्हें प्रकाशित नहीं करती है और न पदार्थ ही चक्षु स्थान तक आकर उसके द्वारा जनाया जाता है, मात्र पदार्थ के रूप को बनाते समय उस द्वारा चक्षु इन्द्रिय में किसी भी प्रकार का उपघात अनुग्रह नहीं होता है । द्रष्टा जब अधिक देर तक पदार्थों का अवलोकन करता रहता है तभी यह होता है, मात्र देखने पर नहीं । अतः उपघातक द्रव्यों द्वारा उपघात के और अनुग्रह के द्रव्यों द्वारा अनुग्रह होने के हम चक्ष में निषेक्षक नहीं हैं ।
प्रश्न -- मुक्तावली में ऐसा कहा गया है 'चक्षुस्तेजसं रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वात् प्रदीपवत्' अर्थात् प्रदीप की तरह चक्षु इन्द्रिय से रश्मियाँ निकलती हैं और वे पदार्थों से भिड़कर प्रकाशित करती हैं । ये अत्यन्त सूक्ष्म होती हैं और स्वयं तेजस रूप होती हैं ।
उत्तर - चक्ष इन्द्रिय में स्वतन्त्र कोई तेजस रश्मियाँ हैं और वे उस इन्द्रिय से निकलकर उसका प्रकाशन करती हैं यह सब एक कल्पना मात्र ही है। इसमें प्रमाण कुछ भी नहीं है, अतः चक्षु, इन्द्रिय अप्राप्त अर्थ का ही प्रकाशन करती है यह युक्तियुक्त बात अवश्य अवश्य स्वीकार करनी चाहिए । यदि च चक्ष प्राप्त अर्थ का प्रकाशन करती है यही बात मानी जावे तो फिर अपने में लगे हुए अजनादिक का प्रकाशन उसी के द्वारा स्पष्ट रूप से हो जाना चाहिए परन्तु ऐसा नहीं होता है ।
प्रश्न-- यदि चक्षु इन्द्रिय को अप्राप्यकारो मानकर पदार्थ को प्रकाशित करने वाली मानी जावे तो इसमें एक यह बड़ा भारी दोष आता है कि जिस समय वह अप्राप्त होकर घट को प्रकाशित करती है उसी समय उसके द्वारा पट का भी प्रकाशन हो जाने का प्रसङ्ग प्राप्त होता है। इस प्रकार से नियामक नियम के अभाव में एक ही साथ विवक्षित अविवक्षित समस्त पदार्थ का प्रकाशन उसके द्वारा होने से किसी भी पदार्थ का निश्चय नहीं हो सकेगा परन्तु ऐसा तो होता नहीं है क्योंकि जिस पदार्थ को हमारी
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इसके लिए स्थाद्वादरत्नाकरावतारिका में चर्चित इस प्रकरण को देखना चाहिए |
२. 'जल' जल तायमं जणरजोमलाई ।
पेच्छेज्ञ, जं न गासइ अगतकारितओ चालु ।"
- विशेष्यावश्यक भाग्य पृ० १२७