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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : पंचम अध्याय सूत्र, १०
के नहीं हैं, अतः स्वेतर प्रमाण फल की व्यवस्था में गड़बड़ी नहीं प्राप्त होने पावे इसके लिए इन दोनों का अवस्थान एक द्रव्यरूप आत्मा में मानकर इस अपेक्षा इन दोनों में अभिन्नता की मान्यता निर्दोष माननी चाहिए तथा अपने-अपने स्वरूप की अपेक्षा इनमें भिन्नता भी है ऐसा भी मानना चाहिए । इस कथन से यह भी समझ लेना चाहिए कि अपने-अपने स्वरूप की अपेक्षा साक्षात् फल और परम्परा फल में भिन्नता और आत्मद्रव्य में इन दोनों का तादात्म्य होने की अपेक्षा अभिन्नता है ।।६॥
सूत्र-स्वपरनिश्चये साधकतमत्वात्साक्षात्फले प्रमाणस्यैव वारणत्वम् ॥ १० ॥
संस्कृत टोका-पूर्व स्वपर व्यवसायात्मक ज्ञानरूप प्रमाणस्याज्ञाननिवत्ति रूप साक्षात्फलेन सह कथंचिदभिन्नत्वं साधयितु कार्यकारणरूप हेतुहेतुमद्भावः प्रतिपादितः तत्र प्रमाणस्य करणत्वं फलस्य च साध्यत्वं द्योतयितु प्रथम प्रमाणस्य करणत्वमाह-"स्वपर निश्चये साधकतमत्वादित्यादिना मूत्रेण, अतिशय साधकतमं करणमुच्यते । स्वपर निश्चये करणरूप ज्ञानस्यैव साधकत्वमायाति नत्वज्ञानरूपस्य सन्निकर्षादे नयन मनसोप्राप्यकारित्वादिति । तत्र प्रमाणताभावात् ज्ञानस्यैव च प्रमाणत्वात् । यथा काष्ठच्छेदन क्रियायां कुठारादिः करणं तस्मिन् कुठारादौ ऊध्वोत्पन्नाधःपतनादिरूप व्यापारबत्वात् न कुठार प्रयोक्तत्वष्टरि । एवमेव स्वपर व्यवसितिरूपाज्ञाननिवृत्ती साक्षात्फले प्रमाणपज्ञानस्यैत्र धारणत्वमायाति न प्रमातर्यात्मनि साधनरूपे करणे अतिशयत्वन्तु तद्व्यापाराव्यवहितोत्तर कालावन्छेदेन क्रियारूपफल निष्पादकत्वादेव बोध्यम् । यथा-"देवदत्तः कुठारेण काष्ठं छिनत्ति" इत्यत्र छेदनरूप क्रियाया निम्पत्तिः साक्षात् तद्व्यापारानन्तर काले एव समुपलब्धा सती दृश्यते । एवमेव प्रकृतेऽपि प्रमातुरात्मनो घटपटादि विषयेण सडेन्द्रियादि संयोगानन्तर काले एव साक्षात्फलम्प क्रियायाः निष्पत्तिर्जायमाना समुपलभ्यते । अतः छिदिक्रियामेव स्वपर व्यवसितिरूप क्रियां प्रति कुठारवत् प्रमाणरूपज्ञानस्यैव करणत्वं निगदित नान्यत्र सन्निकर्षादाविति ।।१०।।
अर्थ-साक्षात् फल और प्रमाण रूप ज्ञान में कार्य कारण भाव होने से कथंचित् भिन्नता का प्रतिपादन पीछे ७वं सुत्र द्वारा किया गया है । उसी वात का समर्थन करने के लिये सूत्रकार ने इस सूत्र का निर्माण किया है। इसके द्वारा यह समझाया गया है कि स्वपर निश्चय रूप जो अज्ञाननिवृत्ति है- बही प्रमाण का साक्षात् फल है। इस फल के प्रति साक्षात्करणता प्रमाण रूप ज्ञान में ही आती है अन्य में नहीं क्योंकि क्रिया के प्रति जो अतिशय साधक होता है वही करण कहलाता है।
प्रश्न-इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध से जायमान सन्निकर्ष से ही पदार्थ विषयक अज्ञान की विनिवृत्ति रूप साक्षात् फल होता हुआ प्रतीति कोटि में आता है अतः सन्त्रिकर्ष को ही प्रमितिरूप अज्ञाननिवृत्ति के प्रति साधकतम मानना चाहिये ज्ञान को नहीं ?
उत्तर-ऐसा नहीं कहना चाहिये- क्योंकि सूत्रकार ने जो "प्रमाणस्यैव" ऐसा पद सूत्र में रखा है उससे उन्होंने अन्यतोथिक जनों द्वारा मान्य जितने भी प्रमाण हैं। उन सब की व्यवच्छित्ति की है और एक ज्ञान में ही प्रमाणता व्यवस्थित की है सन्निकर्ष में प्रमाणता का कथन इसलिये नहीं किया गया है वह अचेतन होने से स्वपर का निश्चायक नहीं होता है, ज्ञान चेतन स्वरूप है और इसी कारण वह स्वपर का निश्चायक होता है, इसी को प्रमितिरूप क्रिया के प्रति साधकतमता कहा गया है, "इन्द्रियार्थ सम्बन्धः सन्निकर्षः" इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध का नाम ही सन्निकर्ष है, ऐसा यह सन्निकर्ष चक्षु एवं मन के साथ घटित नहीं होता है क्योंकि ये दोनों इन्द्रियाँ अपने विषयभूत पदार्थों से सम्बन्धित नहीं होती हैं। चक्षु इन्द्रिय में अप्राप्यकारिता का कथन
प्रश्न-पर्शन, रसना, घ्राण और कर्ण, ये इन्द्रियाँ तो अपने विषयों के साथ सम्बन्धित होती