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न्यायरल. : न्यायरत्नावली टीका : वितीय अध्याय, सूत्र १९-२० एवं प्राधान्येन निषेधमा औषयतीति मातम्यम् न त प्रधानतया निषेधस्य प्रतिपत्तिर्न स्यात् न चैवं सर्वानुभवसिद्धत्वासत्प्रतिपत्तः, अतः शब्दस्य विधिबोधकत्वमिब निषेधवोधकत्वमपि प्रतिपत्तव्यम् ।
सूत्रार्थ--गब्द जिस प्रकार अस्तित्व का बोधक होता है उसी प्रकार से वह नास्तित्व का भी बोधक होता है।
हिन्दी व्याख्या-यहाँ “प्रधानता से" ऐसा शब्द' अध्याहृत हुआ है । इसलिये इस मूत्र का अर्थ ऐसा समझना चाहिये-कि शब्द जिस प्रकार से विधि-अस्तित्व का प्रधान रूप से प्रतिपादक होता है
ह प्रथमभंग बनता है। इसी प्रकार से बह निषेध-नास्तित्व का भी प्रधानल्प से प्रतिपादक होता है । यदि ऐसा नहीं अंगीकार किया जाये तो उससे प्रधानरूप से नास्तित्व की प्रतिपत्ति न हो सकने के कारण द्वितीय भंग जो नास्तित्व धर्म की प्रधानता करके निष्पन्न होता है, वह कैसे निष्पन्न हो सकेगा? अतः यह सर्वानुभव प्रसिद्ध बात अपलपित नहीं की जा सकती हैं, और न यह एकान्त रूप से कहा जा सकता है कि शब्द प्रधानता से विधि का ही कहने वाला है, निषेध का प्रधानता ने कहने वाला नहीं है। क्योंकि वह प्रकरणानुसार विवक्षाधीन होकर कहीं विधि का प्रधानता से कधक होता है तो कहीं नास्तित्व का प्रधानता से कथक होता है ॥ १८ ॥
सूत्र-गुणभावेनैव तदभिधाने नत्र गौणत्वानुपपत्तिः ।। १६ ।।
संस्कृत दीका-शब्दो गुणभावेनैध-अप्राधान्ये व नास्तित्व-निषेधमभिधत्तं इत्यपि न सम्यक्क्वचित्प्राधान्येन प्रतीयमानस्यैवान्यताप्राधान्येन प्रतिपत्त :, एवञ्च यथा शब्दः ववचिदस्तित्वरूपं धर्म प्रधानतया प्रतिपादयति एवं कदाचित् क्वचित् निषेधमपि प्राधान्येन प्रतिपादयति । नतु अप्राधान्ये नैव, अन्यथा तत्राप्रधानतानुपपत्तः क्वचित्प्रधानतया प्रतीयमानस्यैवाप्रधानतायाः सद्भावात् । एतेन परद्रव्यक्षेत्राद्यपेक्षया घटादौ नास्तित्व प्रतिपादकस्य द्वितीयभंगस्योपपत्तिरुत्ता।
हिन्दी व्याख्या-शब्द नास्तित्व धर्म को प्रधानरूप से न कहकर गौणरूप से ही कहता है, यदि ऐसी बात कही जावे तो इस पर कहा गया है कि ऐसा कहना उचित नहीं है । क्योंकि नास्तित्व-धर्म में प्रधानता माने बिना अप्रधानता नहीं आ सकती है । अतः इस एकान्त मान्यता को छोड़कर यही मानना युक्तियुक्त है कि शब्द कहीं पर प्रधानरूप से जिस प्रकार विधि का प्रतिपादक होता है उसी प्रकार वह कहीं पर निषेध का भी प्रधानरूप से ही प्रतिपादक होता है। इस प्रकार से द्वितीय भंग निविरोध सिद्ध हो जाता है। . सत्र-मुख्यत्वेन निषेध कान्तवाच्योक्तिरप्यकान्तोक्त युक्तः ।। २० ।।
- संस्कत टीका-शब्दः प्रधानभावेन निषेधमेव नास्तित्व मेव प्रतिपादयतीत्यपि न श्रेयस्कर विधेरपि प्रधान भावेन क्वचित्तन प्रतिपादनात् । यथा शब्दः क्वचित् कदाचित् पर-द्रव्यादि-चतुष्टयापेक्षया निषेधस्य प्रतिपादकोभिहितः, द्वितीयभंगे प्रधानभावेन, तथैव प्रथमभंगे स्वद्रव्यादि चतुष्टयापेक्षया विधेरपि प्राधान्येन स प्रतिपादकोऽभिहितः । न च बाच्यम् अप्रधानतयैव शब्दो विधि प्रतिपादयतीति क्वचित् प्रधानता रिक्तस्याप्रधानतानुपपत्तः । प्रतोऽकान्तव निषेधैकान्त वाच्योक्तिरुक्त युक्तः ।
हिन्दी व्याख्या शब्द मुख्य रूप से निषेध का ही प्रतिपादक होता है यह कथन भी ठीक नहीं है