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न्यायरल:
रत्नावली टोगा: चतर्थ अध्याय, मत्र १५-१६-१७
के लिये संक्षप से लिखा है ।
इस तरह यह चतुर्थ भंग किसी अपेक्षा, एक साथ दोनों की वक्तव्यता किसी भी शब्द के द्वारा नहीं हो सकने के कारण निर्दोषरूप से सुसंपन्न हो जाता है ॥१४॥
सूत्र-आद्यतुर्ययोभंगयो ोगे पञ्चमः ॥१५।।
संस्कृत टीका- आद्य तुर्ययो भंगयोर्योगजायमानस्य पञ्चमभङ्गस्यालापप्रकारः । "स्यात्सदेव सर्व जीवादिकं स्यादवत्ता व्यमेव सर्व जीवादिकमित्याकारको भवति । एवञ्च यदा विधिविवक्षया घटे स्वद्रव्य-क्षेत्र-कालादिभिरस्तित्वं प्रतिपाद्यते तथा घटेऽस्तित्वस्य प्रधानता नास्तित्वस्य च गौणता युगपत उभयोः प्राधान्ये च स्यादवक्तव्यता ।
हिन्दी व्याख्या---प्रथम भंग और चतुर्थभंग के संयोग से पांचवां भंग होता है। इसका आलाप प्रकार "स्यात्सदेव स्यादवक्तव्यमेव" ऐसा है । इसका तात्पर्य ऐसा है कि जब घटादि वस्तुओं में विधि की प्रधानता करके स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से अस्तित्व धर्म का कथन किया जाता है, उस रामय नास्तित्व धर्म की गौणता हो जाती है परन्तु उस बस्तु में ये दोनों धर्म विद्यमान हैं सो इन दोनों का एक साथ वहाँ कथन नहीं हो सकता है। इस कारण वर अस्तित्वधर्मविशिष्ट होती हुई भी कञ्चित् अवक्तव्य है । तात्पर्य यही है कि प्रत्येक वस्तु प्रथम भंग की अपेक्षा वक्तव्य होती हुई भी युगपत् प्रथम द्वितीय भंग की अपेक्षा वह कथञ्चित् अवक्तव्य हो जाती है ॥ १५ ॥
सूत्र-द्वितीयतुर्ययोर्योगे षष्ठः ।।१६।।
संस्कृत टीका-द्वितीयतुर्ययोर्भङ्गयोर्योगे षष्ठो भङ्गो निष्पन्नो भवति । अस्यालाप प्रकार:स्यानास्त्येवावक्तव्यं च सर्वमित्याकारको भवति । तथा च घटादिकं वस्तु पर-द्रव्यादि चतुष्टयर्नास्तित्वविशिष्ट सत् अस्तित्व नास्तित्वाभ्यां युगपद् वक्तुमशक्यत्वादवक्तव्यमेवेति ।
__ हिन्दी व्याख्या-द्वितीय भङ्ग और चतुर्थ भङ्ग का योग करने पर यह छठा भङ्ग निष्पन्न होता है। इसके द्वारा यह प्रतिपादन किया गया है कि घटादिक वस्तु कथञ्चित पर-द्रव्यादि चत की अपेक्षा नास्तित्वविशिष्ट होती हुई भी अस्तित्व और नास्तित्व धर्मों द्वारा युगपद् वक्तुमअशक्य है। इसलिये "स्यानास्तित्वमेव अवक्तव्यं घ" यह छठा भङ्ग बन जाता है ।।सू० १६१
सूत्र-क्रमाक्रमाभ्यां विधि-प्रतिषेध कल्पना रूपः सप्तमः ।।सू० १७।। .. संस्कृत टोका-अयं च सप्तमो भङ्गस्तृतीयभङ्गचतुर्थभङ्गयोः संयोगे भवति । यदा क्रमशो विधि-प्रतिषेध कल्पना भवति तदा तृतीय भङ्गस्य अक्रमेण च विधि-प्रतिषेध कल्पनायां चतुर्थ भङ्गस्य निष्पत्तिः । एवं च स्याद्घटादि वस्तु स्वद्रव्यादि चतुष्टयापेक्षयाऽस्तित्वविशिष्टं सत् पर-द्रव्यादि चतुष्टयापेक्षया स्यानास्तित्वविशिष्टं सत् । अस्तित्व-नास्तित्वाभ्यां युगपद् वक्तुमशक्यत्वादब्यमेव कथञ्चिदिति सप्तमभङ्गस्यालाप प्रकारः । सप्तभङ्गानामित्थं हृद्य स्त्रानुभूत्यैव चकास्तिइत्यक्तल विस्तरेणेति ॥१७॥
_सूत्रार्थ-विधि और आस्तित्व की जब क्रमशः मुख्यता की जाती है जब तृतीय भङ्ग की और इन दोनों की युगपद् जब मुख्यता की जाती है तब चतुर्थ भङ्ग की निष्पत्ति होती है-ऐसा पहले प्रतिपादन से ज्ञात हो चुका है। अतः क्रमशः और अक्रमशः विधि-नास्तित्व की विवक्षा में यह सप्तम भङ्गनिष्पन्न होता है । तात्पर्य इसका यही है कि स्वद्रव्यादि चतुष्टय और पर-द्रव्यादि चतुष्टय की क्रमशः विवक्षा करने पर ये अस्तित्व और नास्तिस्व धर्म एक-दूसरे के समक्ष गौण नहीं होते हैं जैसा कि प्रथम द्वितीय