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सूत्रात्मक जैन न्याय ग्रन्थ परीक्षामुख सूत्र
जैन न्याय के सूत्रात्मक ग्रन्थों में प्रथम गणना परीक्षा मुख की होती है। आचार्य माणिक्यनन्दि ने रचना की है। जैन परम्परा के महान् नैयायिक अकलंक देव के न्याय ग्रन्थों का दोहन करके यह ग्रन्थ लिखा गया है । छह् समुद्देशों में विभक्त है । सूत्र रचना सुन्दर तथा मधुर है। गागर में सागर भर दिया है । यह प्रमाण बहुल ग्रन्थ है । प्रमाण, प्रमाण का फल, प्रमाणाभास, प्रमाण का प्रमाणत्व,
प्रमाण का विषय, प्रमाण के भेद प्रभेद आदि विषयों का विस्तृत वर्णन किया है । लेकिन नय, निक्षेप और बाद आदि महत्वपूर्ण विषयों की उपेक्षा भी की गई है ।
अनन्तवीर्य आचार्य ने परीक्षामुख के सूत्रों पर मध्यम परिमाण की संस्कृत टीका की है। टीका प्रमेयबहुल है। अतः उसका नाम है-- प्रमेय रत्नमाला | आचार्य प्रभाचन्द्र ने सूत्रों पर अति विशाल तथा महाकाय टीका लिखी है, जिसका नाम हैप्रमेय कमल मार्तण्ड | यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है।
शेषिक, सांख्ययोग, मीमांसा वेदान्त, बौद्ध और चार्वाक का जोरदार खण्ड किया है । केवली भुक्ति और स्त्री कवित का विस्तार से खण्डन किया है। ईश्वरवाद, प्रकृतिवाद, अद्वैतवाद और विज्ञानवाद पर चोट की है।
प्रमाण-नय-तत्त्व लोकालंकार सूत्र
वादिदेव सूरि कृत यह विशुद्ध न्याय ग्रन्थ है | आठ परिच्छेदों में विभक्त किया है। इसका भाषा सौष्ठव देखने योग्य है | सूत्र लम्बे हैं, और समासांत भी। सूत्रों में माधुर्य एवं गाम्भीर्य तो है, लेकिन प्रसाद गुण कम है । निश्चय सूत्र अत्यन्त वजनदार हैं । अध्येता और अध्यापक दोनों की कसौटी है । सूत्र संख्या भी काफी अधिक है। प्रमाण संबद्ध संपूर्ण हैं। नयों पर पूरा परिच्छेद हैं। सप्तभंगी का विस्तृत वर्णन है, जो जैन न्याय का प्राण रहा है। निक्षेपों का भी वर्णन है । वाद, जल्प एवं
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वितण्डा जैसे विषयों को भी छोड़ा नहीं गया । न्यायशास्त्र के इतिहास में आज तक अन्यं वैसा ग्रन्थ नहीं लिखा गया । महान् तार्किक वादिदेव सूरि की यह अमर कृति है ।
मूल सूत्रों पर रत्नाकर सूरि ने विस्तृत व्याख्या लिखी है । व्याख्या का नाम है- रत्नाकरावतारिका | न्याय-शास्त्र और साहित्य-शास्त्र का सुन्दर एवं मधुर संगम है । पदावली अत्यन्त ललित है । अनुप्रास अलंकार का विशाल भण्डार है । वैदिक और बौद्ध दर्शनों का सचोट खण्डन किया गया है । केवली कवलाहार और स्त्री मोक्ष का जोरदार मण्डन किया गया है । श्वेताम्बर मान्यताओं को तर्कबल से युक्तियुक्त सिद्ध किया गया है। अन्य दर्शनों का खण्डन है ।
स्वयं आचार्यं वादिदेव सूरि ने स्व रचित सूत्रों पर अति विशाल तथा महाकाय भाष्य लिखा है, जिसका नाम है- स्याद्वाद रत्नाकर वस्तुतः आज तक किसी भी अन्य न्याय ग्रन्थ पर इतना विशाल भाष्य नहीं लिखा गया । प्रमाणशास्त्र का, व्यायशास्त्र का, वैसा कोई विषय नहीं छोड़ा गया, जिस पर आचार्य वादिदेव ने जमकर न लिखा हो। इस एक ही ग्रन्थ को पढ़कर समस्त भारतीय दर्शन और समस्त भारतीय न्याय पर अधिकार किया जा सकता है । न्याय- शास्त्र का कोई बाद छूट नहीं सका है | आचार्य की प्रवाहमयी भाषा है, तर्कों की गर्जना है और न्याय प्रमेयों की मूसलाधार वर्षा है । कोई वादी सामने टिक नहीं पाता।
जैन न्याय का यह अक्षय भण्डार है । अन्य मत के प्रमाणों में दोष दिखाकर स्व मत सिद्ध प्रमाणों की, प्रमाण के विषयों की, प्रमाण के फलों की तथा प्रमाण के प्रमाणत्व की लम्बी चर्चा प्रस्तुत की है । स्याद्वाद और सप्तभंगी की गहनगम्भीर है। स्याद्वाद और सप्तभंगी, नयवाद और अनेकान्त दृष्टि जैनदर्शन के प्रमाणभूत एवं प्राणभूत सिद्धान्त हैं । जैन दर्शन का आधार ही ये रहे हैं । बौद्ध का विज्ञानवाद एवं शून्यवाद, वेदान्त का अद्वैतवाद एवं मायावाद तथा सांख्य का प्रकृतिवाद
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