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न्यामररन : न्यायरत्नावली टीका : तृतीय अध्याय, सूत्र ५५-५८ सूत्र-इह भूतले घटोनास्ति उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्याप्यनुपलम्मादिति प्रतिषेध्याविम स्वभावानुपलब्धेरुदाहरणम् ॥ ५५ ॥
संस्कृत टीका-“भूतले घटो नास्ति' अत्र प्रतिषध्यो घटः तस्य उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वमविरुद्ध स्वभावत्वं यद्यत्र घटः स्यात्तहि अवश्यमेव स प्राप्येत, परन्तु उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्याप्यस्याधुनोपलब्धिपत्राक्षुषप्रत्यक्ष न भवति अतएव सोऽत्र नास्तीति अनुमितिर्जायते । अयमेव प्रतिषेध्याविरुद्ध स्वभावानुपलब्धेरुदाहरणम् ।
हिन्दी व्याख्या--प्रतिषेध्याविरुद्धस्वभावानपलब्धि का स्वरूप दृष्टान्त द्वारा प्रकट करते हुए सूत्रकार कहते हैं जैसे इस भूतल में घट नहीं है क्योंकि वह उपलब्ध होने योग्य होने पर भी दिखाई नहीं दे रहा है । यहाँ प्रतिषेध्य घट है। उसका अविरुद्ध स्वभाव है, उपलब्ध होने की योग्यता और उस स्वभाव की चाक्षुष प्रत्यक्ष होने के स्वभाव की अनुपलब्धि है । अतः इस रूप अनुपलब्धि से वहाँ पर घट का अभाव अनुमित हो जाता है ।। ५५ ||
सूत्र--अस्मिन् प्रदेशे शिशपा नास्ति वृक्षानुपलब्धेरिति प्रतिवेध्याविरुद्ध पकानुपलब्धेः ॥५६।।
संस्कृत टीका-अत्र प्रतिषेध्येन शिशपारूपेण सह अविरुद्धस्य व्यापकस्य वृक्षरूपकस्ये हेतोरनुपलब्ध्या शिशपाऽभावस्थानुमितिरत्र जायते व्यापकाभावेन ज्याप्याभावसिद्धः ।
हिन्दी व्याख्या–प्रतिषेध्याविरुद्ध व्यापकानुपलब्धि का उदाहरण इस प्रकार से है। इस प्रदेश में शिशपा नहीं है क्योंकि वृक्ष की उपलब्धि नहीं है। यहाँ प्रतिषेध्य शिशपा है, उसका अविरुद्ध व्यापक वृक्ष है। उसकी अनुपलब्धि होने से शिशपा के अभाव की अनुमिति हुई है । ययोंकि व्यापक के अभाव से व्याप्य का अभाव रहता ही है ।। ५६ ॥
सूत्र--अस्मिन् केबारेऽप्रतिहत शक्तिक बीजं नास्ति अंकुरानुफ्लम्माविति प्रतिषेध्याविरुद्ध कार्यानुपलब्धेः ।। ५७ ॥
संस्कृत टीका-अत्र प्रतिषेध्यम अप्रतिहतशक्तिकं बीजं तस्य अविरुद्ध कार्यम् अंकुरोत्पादः तस्य अनुपलम्भेन अप्रतिहत शक्तिकस्य बीजस्य अभावस्य अनुमितिर्भवति ।
हिन्दी व्याख्या–प्रतिषेध्याविरुद्ध कार्यानुपलब्धि का उदाहरण इस प्रकार से है-इस खेत में अप्रतिहत शक्तिवाला बीज नहीं है क्योंकि अंकुरोत्पाद की उपलब्धि नहीं हो रही है। यहाँ प्रतिषेध्य अप्रतिहत शक्तिवाला बीज है। उसका अविरुद्ध कार्य अंकुरोत्पाद है उसकी अनुपलब्धि होने से अप्रतिहत शक्तिक बीज के अभाव की अनुमिति होती है ।।५७।।
सूत्र--अस्य शमादयो भाश म सन्ति तत्त्वाभिखानामावादिति प्रतिषेध्या विरुद्धकारणानुपलब्धेः ॥ ५८ ।।
___ संस्कृत टीका-अत्र प्रतिषेध्येन प्रतिषेधात्मक साध्यस्य प्रतियोगिना प्रशमादि भावेन सह अविरुक्षस्य तत्त्वार्थश्रद्धानरूपस्य कारणस्य हेतोरभावात् प्रणमादिभावाभावस्य अनुमितिर्भवति ।
हिन्दी व्याख्या-इस प्राणी में प्रशमादिभाव नहीं है क्योंकि इसमें तत्त्वार्थश्रद्धान का अभाव है। यहाँ पर प्रतिषेध्य प्रामादि भाव है। उनका अविरोधी कारण तत्त्वार्थ श्रद्धान है। क्योंकि तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन के होने पर ही प्रशमादिभाव होते हैं। अतः उनके अविरोधी कारण का अभाव