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ग्यायरस्न : न्याय रत्नावली टीका : तृतीय अध्याय, सूत्र २५
| ५६ और निगमन इन तीन अवयवों द्वारा जो विषय प्रतिपादन करने के योग्य है वह सब व्युत्पन्न श्रोता गम्यमान होने से इन दो अवयवों द्वारा ही जान लेता है । अतः उनके प्रयोग की बहाँ आवश्यकता नहीं पड़ती है अन्यथा पुनरुक्ति दोष आता है।
प्रश्न-यदि ऐसा माना जावे कि उदाहरणादिकों द्वारा प्रतिपाद्य जो बिषय है वह गम्यमान होता है अतः व्युत्पन्न श्रोता इन दो प्रतिज्ञा और हेतु द्वारा उसे जान लेता है । इसलिये उनके प्रयोग करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है तो इसी प्रकार से अनुमान प्रयोग करते समय जो प्रतिज्ञा और हेतु के प्रयोग की आवश्यकता आपने प्रकट की है-सो उसकी भी क्या आवश्यकता है ? साध्य और हेतु का हो प्रयोग होना चाहिये क्योंकि प्रतिज्ञा के अन्तर्गत पक्ष का ज्ञान प्रकरण आदि को लेकर व्युत्पन्न श्रोता को हो ही जावेगा। फिर "पर्वतोऽयम् अग्निमान्" इस प्रतिज्ञा वाक्य में गम्यमान पर्वतरूप पक्ष के प्रयोग करने की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर - चाहे कितना भी व्युत्पन्न श्रोता क्यों न हो वह केवल हेतु के प्रयोग से साध्य के विवक्षित–प्रतिनियत-आधार का ज्ञान नहीं कर सकता है अतः केवल धूम हेतु के सुनने से "अग्नि कहाँ पर है" ऐसा उसे संदेह होगा ही, इसलिये उस आधार विषयक सन्देह की निवृत्ति के लिये गम्यमान भी पक्ष के प्रयोग करने की आवश्यकता है ॥२४॥
सूत्र-मन्दमति प्रतिपायापेक्षयोबाहरणादीन्यपि पञ्च यथायथं प्रयोज्यानि ॥२४॥
संस्कृत टीका-व्युत्पन्न तीव्र बुद्धि शिष्यापेक्षया प्रतिज्ञा हेतुरूप वाक्यद्वयस्यैव परार्थानुमानावयवत्वं प्रोक्तम्, सम्प्रति अव्युत्पत्र मन्दमति शिष्यापेक्षया प्रतिज्ञा हेतू-दाहरणोपनय-निगमनानामे तेषां पञ्चानां शुद्धीनां च परार्थानुमानावयवत्वं प्रतिपाद्यते । अतो यो मन्दमतिः शिष्यादिः प्रतियोध्यो भवति तदपेक्षयैव परार्थानुमानस्य दशांगता यथायथं ज्ञातव्या । इदमिह रहस्यम्-मन्द-तीन-तीव्रतम बुद्धिभेदात् प्रतिपाशास्त्रिविधा जायन्ते । सदपेक्षया परार्थानुमानरूपाः कथा अपि त्रिविधाः प्रतिपादिताः यस्यां कथायां केवलं लिग प्रतिपाद्यते सा कथा जघन्या, दमादीन् अवयवान् यत्र प्रयोक्ता निवेदयति सा कथा मध्यमा, दशभिरत्रयवः परिपूर्णा कथा उत्कृष्टा, अनेन सूत्रेण एतास्तिसः कथा यथायथं पदेन सूचिताः ॥२५॥
सूत्रार्य - मन्द मति वाले प्रतिपाद्य-शिष्यजनों की अपेक्षा से उदाहरण आदिकों का यथायोग्य रीति से प्रयोग करना कहा गया है ।
हिन्दी व्याख्या- इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने यह समझाया है कि परार्थानुमान का एक हो' प्रकार नहीं है । दूसरे को जिस किसी भी तरह सरलता से प्रमेय की प्रतीति हो जाय उसी तरह से यल करके समझाना चाहिये । दूसरों को शब्दादि द्वारा साधन से साध्य को समझाना यह सब परार्थानुमान है।
१. लिङ्ग केवलमेव यत्र कथयत्येषा जघन्या कथा ।
तू यादीन्यत्र निवेदयत्ययवानेषा भवेन्मध्यमा ।। उत्कृष्टा दशभिर्भवेदवयः सा जल्पितरियमी।
जनरेव विलोकिताः कृतधियां वादे त्रय: ससथाः ।। -स्यावाद २० पृष्ठ ५६ २. नकः परार्थानुमानस्य प्रकारः । -स्यावादरत्नाकर पु० ५८४