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न्यायरल : न्यायरत्नावली टीका : प्रथम अध्याय, सुत्र १३
के जनक माने गये हैं । अतः उत्पत्ति की अपेक्षा प्रमाणता और अप्रमाणता ज्ञान में पर से ही-इन्द्रियों की निर्मलता आदि रूप और अनिर्मलता आदि रूप अन्य कारणों से ही-होती है। ऐसा मानना चाहिये। यही बात "ज्ञानजनक सामग्री तो "भिन्न सामग्या जन्यत्वं परतस्त्वम्" इस वाक्य द्वारा समझाई गई है।
जिन कारणों से ज्ञान का निश्चय होता है उन्ही कारणों से ज्ञानगत प्रामाण्य की ज्ञप्ति भी हो जाती है। जैसे कि जो जलज्ञान मुझे उत्पन्न हुआ है, वह बिलकुल प्रमाणभूत ही उत्पन्न हुआ है सो ऐसी यह ज्ञानगत प्रामाण्य की स्वतः ज्ञप्ति अभ्यास दशा की अपेक्षा से होती कही गयी है, अनभ्यास दशा की अपेक्षा से नहीं, क्योंकि अनभ्यास दशा में उत्पन्न हुए ज्ञान में प्रमाणता की ज्ञप्ति ज्ञान के ज्ञापक से भिन्न ज्ञापक द्वारा होती है। यदि अनभ्यास दशा में जायमान ज्ञान में प्रमाणता की शक्ति स्वतः होने लगे तो फिर उत्तरकाल में जो ऐसा संशय होता है, कि जो जलज्ञान मुझे उत्पन्न हुआ है, वह सत्यरूप में जल है या मरमरीचिका है ? फिर वह आगे जलादि की उपलब्धि से उसका निश्चय करता है। अतः यह प्रामाण्य की ज्ञप्ति अमभ्यास दशा की अपेक्षा परतः हुई ही मानी गई है ॥१३॥
॥ प्रथम अध्याय समाप्त ॥