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नीति वाक्यामृतम् । "याचक का दोष निरूपण"
नित्यमर्थयमानात् को नाम नोद्विजते 121॥
अन्वयार्थ :- (नित्यम्) प्रतिदिन (अर्थयमानात्) याचना करने वाले से (को नाम) कौन व्यक्ति (उद्विजते) ऊबता (न) नहीं हो?
निरन्तर साचना करने वाले से दोन पोशान नहीं होला ? सभी हो जाते हैं । कहावत् है "मान घटे नित के घर जाये" प्रतिदिन घर जाने से मान-सम्मान नष्ट हो जाता है । व्यास जी ने भी कहा है
मित्रवं बन्धुवानौ वाति प्रार्थनार्दितं कुर्यात् ।
अपि वत्समतिपिवन्तं विषाणैरधिक्षिपति धेनुः ।। अर्थ :-- कोई भी मनुष्य चाहे वह याचक का मित्र व बन्धु ही क्यों न हो सदैव याचना करने से दुःखी हो जाता है । गाय अपने बच्चे को आतिशायि प्यार करती है, वह भी अधिक दुग्ध पान करने वाले बछडे को लात मार देती है, सींग हिलाकर भगा देती है । आचार्य देव कहते हैं .
रिक्तस्य न हि जागर्ति कीर्तनीयोऽखिलो गुणः । अलमन्यै न लोके भ्यो रोचते तत्सुभाषितम् ॥6॥
कु.का. परि.105 अर्थात् दरिद्री चेतना शून्य हो जाता है, उसके समस्त प्रशंसनीय गुण भी, अरण्य में मुकलित कुसुम की भाँति व्यर्थ हो जाते हैं । अधिक क्या कहा जाय उसकी मधुरवाणी भी लोक में प्रिय नहीं लगती । उसका मधुरालाप भी कर्कश प्रतीत होता है । अभिप्राय यह है कि उसके सद्गुण भी दुर्गुण रूप परिणमन कर जाते हैं । हमें सावधान होकर दारिद्रय नाशक पुण्यार्जन करना चाहिए । तप का स्वरूप
इन्द्रिय मनसोनियमानुष्ठानं तपः ॥22॥
अन्वयार्थ :- (इन्द्रिय) पाँचों इन्द्रियाँ (मनसः) मन का (नियम) निरोध करने का (अनुष्ठानम्) आचरण करना (तपः) तपश्चरण (कथ्यते) कहा जाता है ।
इन्द्रियों और मन की अनर्गल प्रवृत्ति को रोकना तपश्चरण है । आचार्य अकलंक देव कहते हैं "तप्यते ति तपः" जो तपा जाय वह तप है । विशेषार्थ:- आचार्य श्री कुन्दकुन्द "कुरल" काव्य में कहते हैं -
सब विध हिंसा-त्याग कर बनना करुणा धार ।
सब दुःखों को शान्ति से, सहना तप का सार ।।1।। अर्थ :- संकल्पी, विरोधी, उद्योगी और आरम्भी ये चार प्रकार की हिंसा होती है । नवकोटि से इनका त्याग
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