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________________ -नीति वाक्यामृतम् - स्वर्गाय धर्मपात्रं च कार्यपात्रमिह स्मृतम् । काम पात्रं निजा कान्ता लोक द्रव प्रदायकम् ।। ____ अर्थात् धर्म पात्र स्वर्ग के लिए पूज्य है, कार्य पात्र इस लोक सम्बन्धी इन्द्रिय जन सुख देते हैं और उभय लोक के इन्द्रिय जन्य सुखोपभोगार्थ कामिनी पात्र का सेवन करना चाहिए । यशस्तिलक में इन्हीं आचार्य ने 5 प्रकार के पात्र माने हैं । 1, समयी जैन सिद्धान्त के वेत्ता चाहे श्रावक हों या मुनि श्रेष्ठ, 2. वे श्रावकव्रती 3. साधु, 4. आचार्य और 5. जैन शासन की प्रभावना करने वाला विद्वान् ये पांच प्रकार के पात्र कहे हैं । इन पाँचों प्रकार के पात्रों का विवेचन वहीं से ज्ञात करें। पात्रों के विषय में अन्यमत "एवं कीर्ति पात्रमपीति केचित् 13॥" अन्वयार्थः- (एवं) इसी प्रकार (कीर्तिपात्रम्) कीर्ति पात्र (अपि) भी है (इति) ऐसा (केचित्) कोई (मन्यते) मानते हैं । जिसको दान देने से कीर्तिस्तम्भ स्थापित हो वे कीर्तिपात्र कहलाते हैं । कीर्ति के कारणों का निर्देश किं तया कीर्त्या या आश्रितान्न विभर्ति, प्रतिरुणद्धि वा धर्म भागीरथी-श्री-पर्वतवद्भवानामन्यदेव प्रसिद्धेः कारणं न पुनस्त्यागः यतो न खलु गृहीतारो व्यापिनः सनातनाश्च ।।14॥ अन्वयार्थ :- (या) जो (कीर्त्या) यश के द्वारा (आश्रितान्) अपने आश्रितों को (न विभर्ति) पालन नहीं करता (तया) उस कीर्ति से (किं) क्या (प्रयोजन) । एवं (वा) अथवा (धर्म भागीरथी) धर्मङ्गको (प्रतिरुणद्धि) नष्ट करती है, अथवा (धर्म) धर्म (भागीरथी) जाह्नवी, (श्री) लक्ष्मी (पर्वतवद्भावानाम्) पार्वती "पर्वत सम्बन्धी स्थान विशेष" से (अन्यत्) अन्यत्र ही (प्रसिद्धेः) प्रसिद्धि का (कारण) हेतू है (न पुनस्त्यागः) अन्य त्याग नहीं (यतो) क्योंकि (खलु) निश्चय से (गृहीतारो) ग्रहण करने वाला (व्यापिनः) व्यापक (च) और (सनातना) सनातन होता है । विशेषार्थ :- जो मूर्ख, कुकर्मी, नास्तिक लोग अपने आश्रित रहने वालों को सता कर कष्ट देकर, मद्यपान, परस्त्री सेवन आदि कुकृत्यों में फंसकर धर्म को तिलाञ्जलि देकर जो यश, कीर्ति प्राप्त करते हैं उनकी वह कीर्ति अपकीर्ति ही समझनी चाहिए । विदुर नामक विद्वान ने लिखा है - आश्रितान् पीडयित्वा च धर्म त्यक्त्वा सुदूरतः । या कीर्तिः क्रियते मूडैः किं तयापि प्रभूतया ।। 1॥ कै तवां यं प्रशंसन्ति यं प्रशंसन्ति मधपाः । यं प्रशंसन्ति बन्धक्यो कीर्तिः साकीर्तिरुपिणी ।।2॥ अर्थात् मूर्खजन धनाभिमान से अपने आश्रित दास-दासियों को सताकर, धर्म, न्याय-नीति का परित्याग कर जिस यश को अर्जित करते हैं वह यथार्थ में अपकीर्ति है । जो यश मात्र शराबी, जुआरी, निन्दक, व्यभिचारियों तथा निंदकों द्वारा गया जाता है उससे क्या लाभ ? कोई लाभ नहीं है । अशुभ कर्म, नीच गोत्र के आस्रव के कारण हैं । 20
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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