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नीति वाक्यामृतम्
सैन्यदल में नहीं मिलावे । पूर्ण परीक्षित होने पर भी स्वीकार कर ले परन्तु अपनी छावनी में निवास स्थान न दे। यदि शत्रु के कुटुम्बी उससे रुष्ट होकर आयें तो उनकी परीक्षा कर निवास स्थान दे, अपने पक्ष में मिला ले । इतिहास प्रसिद्ध घटना है कि कृकलास नाम के अनीकपति-सेनापति ने अपने स्वामी से बनावटी असत्य कलह कर शत्रु के हृदय को विश्वस्त कर दिया उससे मिल गया और उस शत्रु विरुपाक्ष नपति को मार डाला 150 | जैमिनी ने भी इसकी पुष्टि की है :
यद्यपि स्याल्लघुः सिंहस्तथापि द्विपमाहवे ।
एवं राजापि वीर्यायो महारि हन्ति चेल्लघुः ।।1॥ विजेता राजा पराभूत नृप को अधिक पीड़ित न करे । अर्थात् एक बार से अधिक पुनः उस पर आक्रमण करने की चेष्टा नहीं करे । अपनी सेना की शक्ति अनुसार उसे युद्ध की प्रेरणा दे और स्वयं सेना की प्रसन्नता का ध्यान रखते हुए उसे दान-सम्मानादि से संतुष्ट कर उसके साथ शत्रु पर चढ़ाई करे ।।51॥
विजयलाभ लेकर अपने नगर में प्रविष्ट होने पर राजा अपनी सेना को विश्राम प्रदान करे । उसे इधर-उधर अधिक न घुमावे । क्योंकि लम्बी मुसाफिरी करने से वह अमित होगी और कदाच शत्रु आक्रमित हुई तो फिर सरलता से परास्त कर शत्र विजय कर लेगा ।।52 ॥ शत्रु के कुटुम्बी यदि आकर मिलें तो उन्हें अवश्य अपने पक्ष में ले ले । क्योंकि शत्रु को परास्त करने के लिए इससे बढ़कर कोई अन्य मन्त्र नहीं है ।।53 ॥ शुक्र ने भी कहा है -
न दायादात् परो वैरी विद्यतेऽत्र कथंचन ।
अभिचारकमंत्रश्च शत्रुसैन्य निषूदने ।।1।। शत्रुनाश का परिणाम व दृष्टान्त, अपराधी के प्रति राजनीति व दृष्टान्तः
यस्याभिमुखंगच्छेत्तस्यावश्यदायादानुत्थापयेत् ।।54 ।। कण्टकेन कण्टकमिवपरेण परमुद्धरेत् ।।55 ॥ विल्वेन हि विल्वं हन्यमानमुभयथाप्यात्मनो लाभाय ।।56 ॥ यावत्परेणापकृतं तावतोऽधिकमपकृत्य सन्धिं कुर्यात् ।।57 || नातसे लोहं लोहेन सन्धत्ते 1158॥
विशेषार्थ :- विजय का इच्छुक शत्रु पर आक्रमण करे । उसके परिवार के लोग दायादादि को योग्य उपायों द्वारा अपने पक्ष में मिलावे । उन्हें युद्ध को प्रेरित करे । उसे अपनी सैन्य की क्षति द्वारा शत्रु को नष्ट करने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए अपित कांटे से कांटा निकालने की नीति द्वारा शत्र संहार का प्रयत्न करना चाहिए । जिस प्रकार बेल से बेल फाड़े जाने पर दोनों में से एक अथवा दोनों ही फूट जाती हैं । इसी प्रकार विजिगीषु द्वारा शत्रु से शत्र लड़ाया जाता है तब उनमें से एक का अथवा दोनों ही का नाश निश्चित होता है । अतः विजेता को दोनों ही प्रकार से लाभ होता है 1154-55-56 ।।
विजेता राजा का कर्तव्य है कि पराजित शत्रु द्वारा उसकी जितनी हानि हुयी हो उससे अधिक शत्रु की क्षति " होने पर उससे सन्धि कर ले ।57 ॥ गौतम ने भी कहा है :
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