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________________ नीति वाक्यामृतम् भी जलाने में समर्थ नहीं होता उसी प्रकार जिस राजा की सेना एवं धन नष्ट हो गया है वह भी कार्य करने में सक्षम नहीं होता 142 || नैतिक पुरुष को शत्रु की चिकनी चुपड़ी बातों में नहीं फंसना चाहिए ।। उधर अधिक लक्ष्य नहीं देवे, कपटपूर्ण व्यवहारों में सावधान रहता हुआ वर्तन करे | 143 दृष्टान्त, अकेला युद्ध न करे, अपरीक्षित शत्रु व भूमि : जिह्वया लिहन् खड्गोमारत्येव ॥144 ॥ तन्त्रावापौ नीतिशास्त्रम् 1145 ॥ स्वमण्डलपालनाभियोग स्तंत्रम् 1146 || परमण्डलावाप्त्यभियोगोऽवापः 1147 || बहूनेको न गृहणीयात् सदर्पोऽपि सर्पों व्यापाद्यत एव पिपीलिकाभिः | 148 ॥ अशोधितायां परभूमौ न प्रविशेनिर्गच्छेद्वा | 149 || विशेषार्थ :- तलवार की अति प्रीति से जिह्वा से चाटने पर भी उसे काटती है। घायल ही करती है, उसी प्रकार शत्रु भी मधुरवाणी का प्रयोग करता हुआ, मार डालता है । अतः चापलूसों का विश्वास नहीं करना चाहिए ||44 ॥ तन्त्र का अर्थ है स्वदेश रक्षार्थ सैन्य आदि का संगठन करना, अथवा अन्य देश को जीतने के लिए सन्धिविग्रहादि करना आदि का उपाय जिस शास्त्र में वर्णित हो उसे "नीतिशास्त्र" कहते हैं । अपने स्वराज्य-राष्ट्र व देश की सुरक्षा के लिए किये जाने वाला सैन्य संगठन आदि "तन्त्र" कहलाता है और परदेश की प्राप्ति के लिए किये जाने वाले सन्धिविग्रहादि उपायों को " अवाप" कहते हैं । 145-46 ॥ शुक्र ने भी कहा है कि : स्वमण्डलस्य रक्षायै यत्तंत्रं परिकीर्तितम् ॥ परदेशस्य संप्राप्त्या अवापो नयलक्षणम् ॥1॥ एकाकी राजा बहुसंख्यक शत्रु के साथ कभी भी युद्ध करने में प्रवृत्ति नहीं करे । क्योंकि मदोन्मत्त विषैला सर्प भी बहुत सी पिपिलिकाओं (चींटिओं) द्वारा भक्षण कर लिया जाता है 1148 ॥ नारद ने भी कहा है कि : एकाकिना न योद्धव्यं बहुभिः सह दुर्बलैः ।। वीर्यायैर्नापि हन्येत यथा सर्पः पिपीलिकैः ॥1॥ विजिगीषु राजा को शत्रु भूमि में प्रवेश करते समय तथा वहाँ से निकलते समय प्रथम भूमि व वहाँ के वातावरण की परीक्षा करना चाहिए ।। अपरिक्षित भूमि न तो प्रवेश करे और न निर्गमन ही 1149 ॥ युद्ध या उसके पूर्व राज कर्त्तव्य, विजयप्राप्ति मन्त्र, शत्रुरक्ष को अपने में मिलाना: विग्रहकाले परस्मादागतं कमपि न संगृहणीयात् गृहीत्वा न संवासयेदन्यत्र तद्दायादेभ्यः, श्रूयते हि निजस्वामिना कूटकलहं विधायावाप्त विश्वासः कृकलासो नामानीक पतिरात्मविपक्षं विरुपाक्षं जघानेति 1150 | बलमपीडयन् परानभिषेणयेत् ||51|| दीर्घप्रयाणोपहतं बलं न कुर्यात् स तथाविधमनायासेन भवति परेषां साध्यम् 1152 ॥ न दायादादपरः परबलस्या कर्षणमन्त्रोऽस्ति । 153 ॥ विशेषार्थ :- संग्रामकाल में यदि कोई अनजान व्यक्ति बाहर से आवे तो उसकी परीक्षा किये बिना अपने 560
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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