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नीति वाक्यामृतम्
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जिस प्रकार सलिल - जल से लबालब भरे सरोवर की रक्षा उसका ही बहाव हैं, अन्य उपाय नहीं । उसी प्रकार वैभवशाली धनाढ्य पुरुष के धन का रक्षक धन ही है अन्य नहीं ॥30॥ विष्णुशर्मा का भी यही अभिप्राय है :
उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम् । तडागोदर संस्थानां परवाह इवाम्भसाम् ॥1॥
अर्थ वही है ।
यदि अपने से विशेष बलवान पुरुष आवश्यक कुछ धन चाहता है और निर्बल उसे अज्ञान व लोभ-वश नहीं देता है तो उसका धन बलवान द्वारा बलात् अपहरण कर लिया जाता है । 131 ॥ भागुरि ने भी कहा हैबलाढ्येनर्थितः साम्ना यो न यच्छति दुर्बलः । किंचिद्वस्तु समं प्राणैस्तत्तस्यासौ हरेद् ध्रुवम् ॥11 ॥
शक्तिहीन महीपति अपने से विशेष शक्तिशाली किसी नृपति को कुछ धनादि प्रयोजन सिद्धयर्थ देना चाहता है तो उसे उस सीमाधिपति को विवाहादि उत्सव के बहाने अपने घर पर बुलाकर बहुमान पूर्वक इसे किसी बहाने ने प्रदान करना चाहिए | 132 ॥
शुक्र ने भी इसकी पुष्टि की है :
वृद्ध्युत्सवगृहातिथ्य व्याजैदैयं बलाधिके । सीमाधिपे सदैवात्र रक्षार्थस्वधनस्य च 111 11
अर्थ न देने से आर्थिक क्षति, दृष्टान्तमाला, स्थान भ्रष्ट राजा व समष्टि का माहात्म्य :
आमिषमर्थमप्रयच्छतोऽनवधिः स्वान्निबन्धः शासनम् 1133 ॥ कृतसंघात विधात्तोऽरिभिर्विशीर्णयूथो गज इव कस्य न भवति साध्यः 1134 ॥ विनिःस्रावित जले सरसि विषमोऽपि ग्रहो जलव्यालवत् 1135 ॥ वनविनिर्गतः सिंहोऽपि शृगालायते 1136 || नास्ति संघातस्य निःसारता किन्न स्खलयति मत्तनपि वारणं कुथिततॄण संघातः 1137 ॥ संहतैर्बिसतंतुभिर्दिग्गजोऽपि नियम्यते ॥38॥
अन्वयार्थ :- (आमिषम् ) प्रतिद्वन्दी को (अर्थम्) धन (अप्रयच्छतः ) नहीं देने वाला, (अनवधि: ) अपरिमत (स्यात्) देगा (निबन्ध) कारण (शासनम्) अधिकार का 1133 ॥ ( कृतसंघात विधातः ) समूह का नाशक (अरिभिः) शत्रुओं द्वारा (विशीर्णयूथ) नष्ट समुदाय (गज इव) हाथीसमान (कस्य) किसका (साध्यः) साध्य (न) नहीं (भवति) होता है । 134 ॥ ( बिनिः स्त्रावित जले) जल निकलने पर ( सरसि ) सरोवर में (विषयोऽपि ) भयंकर भी ( ग्राहः ) घड़ियाल (जल व्यालवत्) जलसर्पवत् हो जाता है 1135 ॥ ( वन विनिर्गतः ) वन से निकला (सिंह) शेर (अपि) भी ( शृगालायते) गीदड होता है 1136|| ( संघातस्य) समुदाय के ( निस्सारता) शक्तिहीनता (न) नहीं (अस्ति) है (किम्) क्या (कुथिततृणसंघातः) घास से बटा रस्सा ( मत्तम्) मदोन्मत्त (अपि) भी (वारणम्)
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