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नीति वाक्यामृतम्
कहते हैं । उसके ज्वलन्त दृष्टान्त मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र महाराज हैं जिन्होंने अपने पराक्रम और वानखंशियों की सेना की सहायता से त्रिखण्डाधिपति रावण को परास्त किया 1141 ।। गर्ग ने भी कहा है :
सहजो विक्रम यस्य सैन्यं बहुतरं भवेत् । तस्योत्साहो तद्युद्धे या ! दाशरथैः पुरः ॥1॥
जो भूपति तीनों शक्तियों - 1. मन्त्रशक्ति, 2 प्रभुत्व और 3. उत्साहशक्ति सम्पन्न होता है वही श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि इनके बल से वह शत्रु को परास्त कर विजयपताका फहराता है । जो इन तीनों शक्तियों से रहित है वह हीन माना जाता है और जो तीनों में समान होता है वह 'सम' कहा जाता है । हीन और समान शक्ति बालों को शत्रु से युद्ध नहीं करना चाहिए ।। गरु ने भी कहा है :- 142 ॥
समेनापि न योद्धव्यं यद्युपायत्रयं भवेत् । अन्योव्याहति यो संगो द्वाभ्यां संजायते यतः ॥॥॥ ॥
षाड्गुण्य सन्धिविग्रहादि का निरुपण :
सन्धि विग्रहयानासन संश्रयद्वैधीभावाः षाड्गुण्यम् 1143 ॥ पणबन्धः सन्धिः ||44 || अपराधो विग्रह ||45|| अभ्युदयो यानम् 1146 ॥ उपेक्षणमासनम् 1147 || परस्यात्मार्पणं संश्रयः ॥ 8 ॥ एकेनसह सन्धायान्येन सह विग्रहकरणमेकत्र वा शत्रौ सन्धानपूर्वं विग्रहो द्वैधीभाव: 1149 ॥ प्रथमंपक्षे सन्धीयमानो विग्रहयमाणो विजिगीषुरिति द्वैधीभावो बुद्ध्याश्रयः ॥ 150 ॥ विशेष निरुपणम् :
1. सन्धि - शत्रु के साथ मैत्रीभाव स्थापित करना, 2. विग्रह दुर्जनों को वश करने के लिए या अपनी सत्ता बढाने के लिए संग्राम करना विग्रह है । 3. यान शत्रु पर हमला- आक्रमण करना, 4. आसन् शत्रु की उपेक्षा करना, 5. संश्रय पराजय स्वीकार करना और 6. द्वैधीभाव - शत्रुदल में भेद डालना ये राजाओं के षडगुण हैं- 1143 ॥ विजय का इच्छुक अपना बल कमजोर देखता है तो शत्रु के साथ प्रतिज्ञाबद्ध मित्रता कर लेता है इसे 'सन्धि" कहते हैं ||44 | शुक्र ने भी कहा है :
44.
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दुर्बलो बलिनं यत्र पणदानेन तोषयेत् । तावत्सन्धिर्भवेत्तस्य यावन्मात्रः प्रजल्पितः ॥1॥
विजयवैजन्ती का इच्छुक किसी के द्वारा अपराध - वश युद्ध करने में प्रवर्तित होता है उसे विग्रह कहते हैं 1145 ॥ विजिगीषु द्वारा शत्रु पर आक्रमण किया जाना " यान" कहलाता है अथवा शत्रु का विशेष बल - पौरुष
1146 ॥ वलिष्ठ शत्रु को चढ़ाई करने में
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विशेष ज्ञात कर पलायन कर जाना भाग जाना भी " यान" कहा जाता है तत्पर देखकर उसकी उपेक्षा करना वहाँ से भाग जाना आसन कहलाता है होने पर जो उस के प्रति आत्मसमर्पण किया जाता है, उसे संश्रय कहते हैं द्वारा आक्रमण किये जाने पर विजयेच्छु को बलिष्ठ के साथ सन्धि और दुर्बल के साथ संग्राम करना चाहिए । अथवा
147 ॥ बलवान शत्रु द्वारा देश पर आक्रमण । 148 ॥ बलवान और निर्बल दोनों शत्रुओं
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