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________________ नीति वाक्यामृतम् शत्रुता मित्रता का कारण व मन्त्रशक्ति प्रभुशक्ति और उत्साहशक्ति का कथन व उक्तशक्तित्रय की अधिकता से विजयी की श्रेष्ठता : अनन्तरः शत्रुरेकान्तरं मित्रमिति नैषः एकान्तः कार्यं हि मित्रत्वामित्रत्वयोः कारणं न पुनर्विप्रकर्षसन्निकर्षौ ।।35 || ज्ञानबलं मन्त्रशक्तिः 1136 || बुद्धिशक्तिरात्मशक्तेरपि गरीयसी ॥37॥ शशकेनेव सिंहव्यापामंत्र दृष्टान्तः ॥ 38 ॥ काशदण्डवलं प्रभु शक्तिः 1139 ॥ शूद्रकशक्तिकुमारौ दृष्टान्तौ 1140 ॥ विक्रमो बलं चोत्साहशक्तिस्तत्ररामो दृष्टान्तः ॥ 141॥ शक्तित्रयोपचितोज्यायान् शक्तित्रयापचितो हीनः समान शक्तित्रयः #4: 1142 11 अन्वयार्थ :- (अनन्तर:) दूरवर्ती (शत्रुः) रिपु (ऐकान्तरम्) निकटवर्ती (मित्रम्) मित्र (इति) इस प्रकार (एषः) यह (एकान्त:) एकान्त (न) नहीं है । ( कार्यम्) कार्य (हि) निश्चय से ( मित्रत्वामित्रत्वयोः) मित्र व शत्रुता का (कारणम्) कारण [अस्ति ] है (पुनः) फिर (त्रिप्रकर्षसन्निकर्षो) दूर व निकटपना (न) नहीं है ।। (ज्ञानवलम् ) ज्ञानशक्ति (मन्त्रशक्ति:) मंत्रशक्ति है 1136 || (बुद्धिशक्ति:) बुद्धिशक्ति (आत्मशक्तेः) अपनी शक्ति से (अपि) भी ( गरीयसी) अधिक है ।137 | ( शशकेन) खरगोश से ( अत्र ) यहाँ ( सिंह व्यापादनम् ) शेर मारा गया ( दृष्टान्तः) उदाहरण है ||38 ॥ ( कोशदण्डबलम् ) खजाना और दण्ड (बलम् ) बल (प्रभु-शक्ति:) राजा की शक्ति 1139 || शूद्रकशक्तिकुमार का दृष्टान्त है | 1401 (विक्रमः) शूरत्व (वलम् ) शक्ति (च) और ( उत्साह :) उत्साह ( शक्ति:) ताकत का ( दृष्टान्तः) उदाहरण (रामः) राम है | 141 ॥ ( शक्तित्रयोपचितः) तीन शक्तियों युक्त (ज्यायान्) बड़ो को ( शक्तित्रयापचितः) तीनां शक्ति (हीन) लघु (समानशक्तित्रयः) तीनों शक्तिसमान (समः ) सम है | 142 ॥ विशेषार्थ :- दूरवर्ती राजादि शत्रु और निकटवर्ती मित्र हों यह एकान्त सत्य नहीं है। शत्रु-मित्र का लक्षण अन्य ही है । दूरवर्ती या निकटवर्ती नहीं । देखा जाता है पास में रहने वाला शत्रु और अति दूर रहने वाला भी मित्र हो जाता है । 135 | शुक्र ने कहा है : कार्यात्सीमाधिपो मित्रं भवेत्तत्परतो रिपुः विजिगीषुणा प्रकर्त्तव्यः शत्रुमित्रोपकारितः ॥1 ॥ ज्ञान बल को मन्त्र शक्ति कहते हैं ।। शारीरिक बलापेक्षा बुद्धि बल महान व श्रेष्ठ होता है । इस दृष्टान्त से स्पष्ट हो जाता है - बुद्धि बल में प्रवीण एक खरगोश छोटे से प्राणी ने शरीर से वलिष्ठ सिंह को परास्त कर दिया । उसे कुए में डाल दिया । बेचारा मारा गया। सारांश यह है कि विजय के इच्छुक राजा को मन्त्रशक्ति, प्रभुत्व शक्ति और उत्साहशक्ति सम्पन्न होना चाहिए तभी वह विजयश्री का वरण कर सकता है । अन्यथा नहीं 1136-37-38 ॥ पञ्चतंत्र में भी यही दृष्टान्त है ।। जिस राजा के पास गज, अश्व, रथ और पयादे यह चतुरंग सेना है यही उसको प्रभुत्वशक्ति है जो कि उसे तुमुल युद्ध में शत्रु को परास्तकर विजयश्री प्राप्ति में सहायक होती हैं | | 39 | इसके लिए शूद्रक और शक्तिकुमार का दृष्टान्त सुप्रसिद्ध है । शूद्रक ने अपनी चतुरङ्ग सेना से शक्तिकुमार को परास्त कर दिया । यह उसकी प्रभुत्वशक्ति ही है । उसी का माहात्म्य है 1 140 || विजयलक्ष्मी की चाह रखने वाले की पराक्रम और सैन्यशक्ति को " उत्साहशक्ति' 534
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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