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________________ नीति वाक्यामृतम्। प्रोषधोषवासी को त्रयोदशी और पूर्णिमा को एकाशन व चतुर्दशी को उपवास करना होगा । इस प्रकार 16 प्रहर को चारों प्रकार के आहार-जल के साथ विषय- कषायों का त्याग करने से प्रोषधोपवास होता है । यह व्रत इन्द्रियों का दमन करने में विशेष सहायता देता है । विकारों का संवरण करता है 1 भोग और उपभोग को मिलाकर भोगोपभोग शब्द निष्पन्न हुआ है । जो पदार्थ एक बार ही भोगे जा सकते हैं वे भोग कहलाते हैं यथा भोजन, जल, तेल, इत्र, गंधादि । जो पदार्थ पुनः पुनः भोगने में आवे उसे उपभोग कहते हैं । यथा स्त्री, वस्त्र, आभूषण, शैय्या आदि । इन भोग और उपभोग के पदार्थों की सीमा निर्धारित करना भोगोपभोग परिमाण व्रत कहलाता है। इससे इच्छाओं का दमन होता है । तृष्णा का शमन होता है । लोभ का ह्रास होने से परिणाम शुद्धि होती है । i I अतिथि संविभाग व्रतधारी यथा शक्ति चारों प्रकार का दान देता है। या उत्तम मध्यम जघन्य पात्रों को आहार दान देना अतिथि संविभाग व्रत है। जिसकी कोई तिथि न हो वह अतिथि कहलाता है । दिगम्बर साधु किसी का निमंत्रण स्वीकार नहीं करते । अपने अवग्रह ( प्रतिज्ञा ) के अनुसार उत्तम, शुद्ध, जाति कुल वंश वाले घरों में विधिवत् आहार ग्रहण करते हैं । अतः ये अतिधि कहलाते हैं। उन्हें यथावसर भक्ति, श्रद्धापूर्वक आहार देना अतिथि संविभाग व्रत कहलाता है। इस प्रकार ये 12 व्रत हैं । इनका पालन करने से श्रावक धर्म सुचारु रूप से पालित होता है । धर्म जीवन का प्राण है। आत्मा की पुष्टि करने वाला है । तत्वार्थ श्लोक वार्तिक में आचार्य श्री विद्यानन्द जी ने लिखा है "जिस प्रकार वर के निदान - प्रतिनियत कारणों (वात, पित्त और कफ की विषमता आदि ) का ध्वंश, उसको नष्ट करनेवाली औषधि के सेवन से हो जाता है, उसी प्रकार मुमुक्षु प्राणी में भी सांसारिक व्याधियों के कारणों (मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम ) का ध्वंश भी उनको औषधि के सेवन से अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की सामर्थ्य से हो जाता है। ऐसा होने से कोई आत्मा समस्त दुःखों की निवृत्तिरूप मोक्षप्राप्त कर लेता है । इसलिए जिन सत्कर्तव्यों (उक्त सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र) के अनुष्ठान से मनुष्य को स्वर्ग श्री और मुक्ति श्री की प्राप्ति होती है । उसे ही धर्म कहा गया है, धर्म वस्तु का स्वभाव है । अन्यत्र "दंसणमूलो धम्मो" "वत्थु सहावो धम्मो", "चारित्रं खलु धम्मो", "उत्तम खमादि दसविहो धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो" कहकर कुन्दकुन्द देव ने धर्म की विशद् व्याख्या की है। सबका सार एक ही आत्म स्वरूपोपलब्धि है । जिस प्रकार भी हो धर्म का सेवन अवश्य ही करना चाहिए । “बिन जाने तें दोष गुणन को कैसे तजिये गहिये" युक्ति के अनुसार धर्म के तत्त्व को समझने के लिए अधर्म को जानना भी आवश्यक है । अधर्म का निरूपण करते हैं अधर्मः पुनरेतद्विपरीतफलः अर्थ - (पुनः) धर्म के अनन्तर ( एतत् ) इससे (विपरीत) उलटा (फलः) फलदेने वाला (अधर्मः) अधर्म कहलाता है ।। 2 । विशेषार्थ - मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम, सप्त व्यसन, पाँच पापादि दुष्कर्म विपरीत फल देने वाले हैं । अर्थात् नरकादि दुर्गति के प्रदाता हैं । इन्हें अधर्म कहा गया है। पर्वत नारद के संवाद में नारद कहते हैंधर्म: कौलसम्मतः I केवलं नरकायैव न स कार्यों विवेकिभिः ।। 1॥ मद्यमांसाशनासंगैर्यो 11 य.ति.च.
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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