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- ---नीति वाक्यामृतम् । उपकार रतो यस्तु वाञ्छते न स्वयं पुनः । उपकारः स वन्द्यः स्याद्वाञ्छते यो न च स्वयम् ।।1॥
अर्थ विशेष नहीं । भर्तृहरि ने भी कहा है "एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थान् परित्यज्यये ।।" जो व्यक्ति स्वार्थ त्याग कर परोपकार रत रहते हैं वे सत्पुरुष निराले होते हैं ।।
1. मूर्ख-अज्ञानी का वैराग्य भाव, 2. तपस्वी का काम सेवन करना, 3. धनहीन-दरिद्री का विलास-हासशृंगार, 4. वेश्यासक्त की पावनता, 5. आत्मत्व में मूढ़ का तत्त्वविज्ञान का आग्रह, इस प्रकार ये पाँच प्रकार के लोग किसे मस्तक की पीड़ा उत्पन्न नहीं करते ? करते ही हैं । सभी को पीड़ादायक होते हैं ।। अभिप्राय यह है कि वैराग्य इच्छुक को ज्ञानी, तपस्वी को काम वासना से दूर, दरिद्री को हास-विलास-श्रृंगार से रहित होना, या धनाढ्य को विलासी होना, पवित्रता के इच्छुक को वेश्यात्यागी और वस्तु विचार के इच्छुक को आत्मज्ञानी होना चाहिए ।।32 ॥ भगवत्पाद ने भी कहा है:
मूर्खस्य तु सुवैराग्यं विट कर्म तपस्विनः । निर्धनस्य विलासित्वं शौचं वेश्यारतस्य च ॥
तत्वत्यागो ब्रह्मविदो पंचैते कंटकाः स्मृताः ॥ 1/2 उपर्युक्त पाँचों ही कण्टक समझना चाहिए 132 ।।
जो मनुष्य-वीर सुभट निशस्त्र पर शस्त्र प्रहार करता है और मूर्ख-अज्ञानी के साथ वाद-विवाद शास्त्रार्थ करता है, वह पञ्च पापों के महा कटुक फल को भोगता है । वे पाँच पाप हैं - 1. स्त्रीवध, 2. बालवध, 3. गोवध, 4. ब्राह्मणवध, 5. स्वामी वध । अतः बुद्धिमान को मूर्ख से विवाद और शस्त्ररहित पर प्रहार नहीं करना चाहिए ।।33 ॥ गर्ग विद्वान का भी यही अभिप्राय है :
स्त्रीवाल गोद्विजस्वामि पंचानां बधकारका । अशस्त्रं शास्त्रहीनं चहि युंजति .... ॥
उपर्युक्त अर्थ ही है ।
प्रयोजनवश नीच संगति, स्वार्थ, गृहदासीरत, वेश्या से हानि, दुराचारी की चित्तवृत्ति :
उपाश्रुति श्रोतुमिव कार्यवशानीचमपि स्वयमुपसर्पेत् ।।4॥अर्थी दोषं न पश्यति ।।35 ॥ गृहदास्यभिगमो गृहं गृहिणी गृहपतिं च प्रत्यवसादयति ।।36॥ वेश्या संग्रहो देव-द्विज-गृहिणी-बन्धूनामुच्चा-टनमन्त्रः 1871 अहो लोकस्य पाप, यन्निजा स्त्री रतिरपि भवति निम्बसमा, परगृहीता शुन्यपि भवति रम्भासमा ।।38॥
अन्वयार्थ :- (उपश्रुतिम्) शकुन शब्द (श्रोतुम्) सुनने के (इव) समान (कार्यवशात्) प्रयोजनवश (नीचम्) 1 तुच्छ के पास (अपि) भी (स्वयम्) अपने आप (उपसर्पेत्) जावे 1B4 ॥ (अर्थी) स्वार्थी (दोषम्) दोष (न) नहीं
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