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नीति वाक्यामृतम्
श्रीमतोऽर्थार्जने कायक्लेशो धन्यो यो देवद्विजान् प्रीणाति । 129 ॥ चणका इव नीचा उदर स्थापिता अपि नाविकुर्वाणास्तिष्ठन्ति ॥30॥सुधान् परियः आयुषकामा परोपकारं करोति ॥31॥ अज्ञानस्य वैराग्यं भिक्षोर्विटत्वमधनस्य विलासो वेश्यारतस्य शौचमविदित वेदितव्यस्य तत्वाग्रह इतिपंच न कस्य मस्तकशूलानि 1 132 1 सहि पञ्चमहापातकी यो अशस्त्रमशास्त्रं वा पुरुषमभियुञ्जीत ॥33॥
अन्वयार्थ ( श्रीमत: ) धनाढ्य का (अर्थ) धन (अर्जने) कमाने में ( कायक्लेश:) शरीर श्रम (धन्यः) प्रशंसनीय है (यः) जो ( देवद्विजान् ) देव, ब्राह्मण (प्रीणयति ) प्रसन्न करता है 1129 || ( चणका) चनों (इव) समान (नीचाः) तुच्छ पुरुष (उदरस्थापिता) पेट में रखने पर (अपि) भी (अविकुर्वाणा:) विकार रहित (न) नहीं ( तिष्ठन्ति ) रहते हैं | 130 ॥ (सः) वह (पुमान्) मनुष्य ( वन्द्यचरितः) चरित्र में वंद्य है (यः) जो (प्रत्युपकारम् ) प्रत्युपकार की (अनपेक्ष्य) अपेक्षा न कर (परोपकार) दूसरे की भलाई (करोति) करता 1131 ॥ ( अज्ञानस्य) अज्ञानी का (वैराग्यम्) वैराग्य ( भिक्षोः) तापसी का ( विटत्वम्) कामसेवन (अधनस्य) निर्धन का ( विलासः) श्रृंगार (वेश्यारतस्य) वेश्यासेवी के (शौचम् ) पवित्रता, (अविदितवेदितव्यस्य) आत्म तत्व ज्ञान शून्य का ( तत्वाग्रह) तत्त्व का आग्रह (इति) ये (पञ्च) पाँच (कस्य) किसका (मस्तकशूलानि ) शिरदर्द (न) नहीं हैं ? | 132 || ( स ) वह (हि) निश्चय से ( पञ्च) मुखिया ( महापात की ) महापापी (यः) जो (अशस्त्रम्) शस्त्ररहित ( अशास्त्रम्) शास्त्र ज्ञान शून्य (वा) अथवा (पुरुषम् ) पुरुष को (अभियुञ्जीत ) समान करता है 1133 ॥
जो श्रीमन्त अपने वैभव द्वारा देवता, ब्राह्मण और याचकों को सन्तुष्ट करता है उसका धनार्जन । ऋषिपुत्रक का भी यही अभिप्राय है :
विशेषार्थ :का श्रम सार्थक है
कायक्लेशो भवेद्यस्तु धनार्जन समुद्भवः I स शंस्यो धनिनो योऽत्र संविभागो द्विजार्थिषु ॥ 11 ॥
अर्थ :
धनार्जन करने में कायक्लेश वही सफल है जिसका धन ब्राह्मणादि के सन्तोष के लिए होता है । वही धन व श्रम प्रशंसा योग्य है । 129 1
नीच पुरुषो का कितना हा उपकार किया जाय परन्तु वे उपकार का बदला अपकार कर ही देते हैं । जिस प्रकार चनों के उदर में रखने पर भी वे पीड़ा ही उत्पन्न करते हैं । कृतघ्न पुरुषों को भी गले लगाने पर भी वे कष्ट ही देते हैं | 30 | भागुरी ने कहा है :
चणकैः सदृशा ज्ञेया नीचास्तान्न समाश्रयेत् । सदा जनस्य मध्ये तु प्रकुर्वन्ति विडम्बनम् ॥1॥
तुच्छ पुरुष सदैव मनुष्यों की विडम्बना करते हैं ।।
जो व्यक्ति प्रत्युपकार की आकांक्षा न करके दूसरों का उपकार करता है, असहायों की सहायता करता है उसका सदाचार वंद्य - पूज्य होता है 1131 ॥ भागुरि ने कहा है :
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