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| नीति वाक्यामृतम् ।
बुद्धिसम्पन्न मानव स्वयं दिये हुए दान द्रव्य को लेने की वाञ्छा नहीं करता, वह उसे छर्दि (वमन) के समान समझता है । जैमिनि ने भी कहा है :
स्वयं दत्तं च यद्दानं न ग्राह्यं पुनरेव तत् ।
यथा स्ववान्तं तद्वच्च दूरतः परिवर्जयेत् ।1 122॥ उत्तम कुलोत्पन्न सत्पुरुष किसी का उपकार करके उसे प्रकट नहीं करते । अपितु उस विषय में मौन ही रहते हैं । 23 || नीतिकारों का कथन है :
इसमपर कातिमामाले महनां गहती ला भावचित्तता । उपकृत्य भवन्ति दूरतः परतः प्रत्युपकारशंकया ।1॥
सत्कार, धर्मरक्षा व दोष शुद्धि का साधन :
परदोष श्रवणे वधिरभावः सत्पुरुषाणां 124 ।। परकलत्रदर्शनेऽन्धभावो महाभाग्यानाम् ।।25 ॥शत्रावपि गृहायाते संभ्रमः कर्त्तव्यः किं पुनर्नमहति ।।26 ॥ अन्तः सारधनमिव स्वधर्मो न प्रकाशनीयः ।।27॥ मद प्रमादजैर्दोषैर्गुरुषु निवेदनमनुशयः प्रायश्चित्तं प्रतीकारः ।।28।
अन्वयार्थ :- (सत्पुरुषाणाम्) सजनों के (परदोषश्रवणे) दूसरे के दोष सुनने में (वधिरभावः) बहरे समान भाव [भवति] होता है ।।24 ॥ (महाभाग्यानाम्) भाग्यवानों का (परकलत्रदर्शने) परस्त्री अवलोकन में (अन्धभाव:) अन्धे समान [भवन्ति] होते हैं |125॥ (गृहायाते) घर में आये (शत्रौ) शत्रु का (अपि) भी (संभ्रमः) स्वागत (कर्तव्यः) करना चाहिए (पुनः) फिर (महति) महापुरुष के आने पर (किम्) क्या (न) नहीं? ||26 ॥ (अन्त:सारधनम्) गुप्त धन के (इव) समान (स्वधर्म:) अपना धर्म (प्रकाशनीयः) प्रकट करने योग्य (न) नहीं है 127 ॥ (मदप्रमादजै:) घमण्ड व आलस्य से उत्पन्न (दोषैः) दोषों को (गुरुषु) गुरु से (निवेदनम्) निवेदन करना (अनुशयः) अनुशय; (प्रायश्चित्तम्) दण्ड लेना, (प्रतीकारः) विरोध करना 1128 H
विशेषार्थ :- सत्पुरुष परदोष सुनने में वधिर होते हैं । प्रथम तो सुनते ही नहीं बलात् श्रवण में आ जाये तो सुनी-अनसुनी कर देते हैं ।।24।। गर्ग ने भी कहा है :
परदोषान्न शृण्वन्ति येऽपि स्युनरपुङ्गवाः ।
शृण्वतामपि दोषः स्याघतो दोषान्यसंभवात् ।।1॥ अर्थात् महापुरुष वही है जो दूसरे के दोषों को श्रवण नहीं करता ।।24।। वादीभसिंह सूरि ने भी मोक्षमार्गी का यही लक्षण कहा है :
अन्यदीयमिवात्मीयमपि दोषं प्रपश्यता । कः समः खलु मुक्तोऽयंयुक्तः कायेन चेदपि ॥
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