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नीति वाक्यामृतम्
स्वामी का कर्तव्य, त्याज्य सेवक, उचित दण्ड :
तस्य भूपतेः कुतोऽभ्युदयोजयो वा यस्य द्विषत्सभासु नास्ति गुणग्रहण प्रागल्भ्यम् ।।36 ॥ तस्य गृहे कुटुम्बं धरणीयं यत्र न भवति परेषामिषम् ॥37॥ परस्त्री द्रव्यरक्षणेन नात्मनः किमपि फलं विप्लवेन महाननर्थसम्बन्धः 1138 ॥ आत्मानुरक्तं कथमपि न त्यजेत् यद्यस्ति तदन्ते तस्य सन्तोषः 189॥ आत्मसंभावितः परेषां भृत्यानामसहमानश्च भृत्यो हि बहुपरिजनमपि करोत्येकाकिनं स्वामिनम् 140 ॥ अपराधानुरूपो दण्डः पुत्रेऽपि प्रणेतव्यः 141॥ देशानुरूपो करो ग्राह्यः ।।42 ॥
अन्वयार्थ :- (तस्य) उस (भूपते:) राजा का (अभ्युदयः) उत्थान (वा) अथवा (जयः) विजय (कुतः) कहाँ । (यस्य) जिसका (द्विषत्सभासु) शत्रुसभा में (गुणग्रहण) गुण मान्यता (प्रागलभ्यम्) प्रकर्षता (न) नहीं (अस्ति) है 136 ॥ (तस्य) उसके (गृहे) घर में (कुटुम्बम्) परिवार को (धरणीयम्) रखना चाहिए (यत्र) जहाँ (परेषाम्) दूसरों से (इषम्) नष्ट (न) नहीं (भवति) होता है 1137 ॥ (परस्त्री द्रव्यरक्षणेन) दूसरों व धनरक्षण से (आत्मनः) आत्मा का (किम्) कुछ (अपि) भी (फलम्) फल (न) नहीं (विप्लवेन) हरण या नाश से (महान्) बहुत (अनर्थसम्बन्धः) अनर्थ हो।38 ॥ (आत्मानुरक्तम्) अपने प्रिय को (कथम्) किसी (अपि) भी प्रकार (न) नहीं (त्यजेत्) त्यागे (यदि) अगर (तदन्ते) उसके अन्त में (तस्य) उसके (सन्तोषः) सन्तोष (अस्ति) है ।।39 ॥ (आत्मसंभाक्तिः ) स्वाभिमानी (परेषाम्) दूसरे (भृत्यानाम्) सेवकों को (असहमान:) नहीं सहता (च)
और (भृत्यः) घमंडी सेवक (हि) निश्चय से (बहुपरिजनम्) बहुतों से (अपि) भी (स्वामिनम्) राजा को (एकाकिनम्) अकेला (करोति) करता है 140 ॥ (अपराधानुरूपः) दोषानुसार दण्ड (पुत्रे) पुत्र में (अपि) भी (प्रणेतव्यः) प्रयुक्त करना चाहिए ।।41 ।। (देशानुरूपः) देश के अनुसार (करः) टैक्स (ग्राह्यः) ग्रहण करे । 42 ||
विशेषार्थ :- जिस नृपति का शत्रुसभा में विशेष रूप से गुणानुवाद नहीं होता अर्थात् शत्रु जिसका गौरव गान नहीं करता उस पृथिवीपति का उत्थान व विजय किस प्रकार हो सकती है ? नहीं हो सकती । अत: विजिगीषु को शूरवीरता व नीतिमत्ता, राजशास्त्रज्ञानी सद्गुणों से अलंकृत होना चाहिए 136॥ शुक्र ने भी यही कहा है :
कथं स्याद्विजयस्तस्य तथैवाभ्युदयः पुनः । भूपतेर्यस्य नो कीर्तिः कीर्त्यतेऽरि सभासु च ।।1।।
वही अर्थ है ।
विवेकी पुरुष को अपना परिवार ऐसे श्रेष्ठ घर में रखना चाहिए जहाँ पर शत्रुकृत उपद्रवों से सुरक्षित रह सकें। अर्थात् शत्रुओं से अगम्य घर में रखना चाहिए 187 ॥ जैमिनी ने भी कहा है :
नामिषं मन्दिरे यस्य विप्लवं वा प्रपद्यते । कुटुम्बं धारतेत्तत्र य इच्छेच्छ्रे यमात्मनः ||
पराई नारी और पर धन का संरक्षण करने से कोई लाभ नहीं है । क्योंकि उसके परिणाम भयड्कर हो सकते हैं अर्थात् कदाच दुर्भाग्यवश किसी शत्रु द्वारा उनका अपहरण हो जाय या नष्ट हो जावे तो विपरीत परिणाम होगा क्योंकि उसका-उनका स्वामी वैर विरोध करने लगता है ।38 ।। अत्रि विद्वान ने लिखा है :
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