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________________ नीति वाक्यामृतम्। अविश्वसनीय पुरुष : देवगुरुधर्मरहिते पुंसि नास्ति सम्प्रत्ययः ।।65॥ अन्वयार्थ :- (देवधर्मगुरुरहिते) देवगुरु धर्मरहित (पुंसि) पुरुष में (सम्प्रत्ययः) विश्वास (न) नहीं (अस्ति) होता है 165॥ विशेषार्थ :- भगवान की भक्ति, गुरु उपासना व अहिंसाधर्म की अवहेलना करने वाला पुरुष विश्वास का पात्र नहीं होता है । नैतिक और सदाचारी पुरुष धर्मविहीन नहीं होता । वही विश्वास योग्य माना जाता है । अत: विवेकी पुरुष को शाश्वत कल्याणकारी व विश्वासपात्र बनने के लिए वीतराग सर्वज्ञ व हितोपदेशी ऋषभादि तीर्थङ्कर भगवान, निर्ग्रन्थ दिगम्बर वीतराग गुरुओं तथा अहिंसामय धर्म का श्रद्धालु बनना चाहिए । यही मोक्षमार्ग का साधन बनता है |1651 भगवान का स्वरूप व उसकी नाम माला : क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेषो देवः ।।56 ॥ तस्यैवैतानि खलु विशेष नामान्यहन्नजोऽनन्त शंभु बुद्धस्तमोऽन्तक इति ।।67 ।। __अन्वयार्थ :- (क्लेश) दुःखरूप (कर्मविपाक:) कर्मों के फल को (आशयैः) अभिप्राय (अपरा:) अन्य कारणों के (आमृष्टः) नाशक (पुरुषविशेष:) पुरुषविशेष को (देव:) देव कहते हैं ।। (तस्य) उसके (एव) ही (एतानि) ये (खलु) निश्चय से (विशेष) विशेष (नामानि) नाम (अर्हन्नजोऽनन्त:शंभुर्बुद्ध:तमोऽन्तक इति) अर्हत् अज, अनन्त, शम्भु, बुद्ध तमऽन्तक आदि हैं । विशेषार्थ :- देव या भगवान वह पुरुष कहलाता है जिसने जन्म, मरण और जरा का नाश किया है, अर्थात् संसार द:खों का नाश किया है । ज्ञानावरण. दर्शनावरण. मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिया कर्मों का नाश नन्त चतष्ट्रय प्राप्त किया है, कर्मोदय से होने वाले राग-द्वेष, मोह आदि का सर्वथा उच्छेद किया है वे ही वीतरागी, सर्वज्ञ, हितोपदेशी होता है ।। इस भगवान को ही अनेक नामों से स्मरण करते हैं यथा अर्हन, अज, अनन्त, शम्भु, बुद्ध व तमोऽन्तक आदि 167 ॥ ___ अर्हन् :- त्रिलोक से पूजित होने से । जन्मरहित होने से "अज'" । मृत्युशून्यता से अनन्त आत्मीय सुख सम्पन्न होने से "शम्भु" । केवलज्ञानी होने से "बुद्ध" । अज्ञानांधकार के नाशक होने से "तमोऽन्तक" कहते हैं ।। यशस्तिलकचम्पू में देव का लक्षण : सर्वज्ञ, सर्वलोकेशं सर्वदोषविवर्जितम् । सर्वसत्वहितं प्राहुरातमाप्तमतोचिताः ।।1।। कर्तव्यपालन, असमय का कार्य, कर्त्तव्य में विलम्ब से हानि : आत्मसुखानरोधेन कार्याय नक्तमहश्च विभजेत् 168॥ कालानियमेन कार्यानुष्ठानं मरणसमम् ॥6॥ । आत्यन्तिके कार्येनास्त्यबसरः 1170॥ अवश्यं कर्तव्ये कालं न यापयेत् ।।710 466
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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