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________________ नीति वाक्यामृतम् जिनका लालन-पालन भी सुख-शान्ति से किया गया है, वे कभी भी अपने पिता के साथ विद्रोह नहीं करते, उसका अनिष्ट चिन्तन नहीं करते 175 ॥ गौतम विद्वान ने भी कहा है : आप्तर्विद्याधिक ये ऽत्र राजपुत्राः सुरक्षिताः । वृद्धिं गताश्च सौख्येन जनकं न ब्रह्मन्ति ते 11 175॥ श्रेष्ठतम माता-पिता की प्रासि राजकुमारों के पुण्योदय पर निर्भर करती है 1 भाग्योदय से उत्तम, शुद्ध मातापिता प्राप्त होते हैं । अभिप्राय यह है कि युवराजों ने पूर्व भव में सातिशायी पुण्यार्जन किया है तो इस भव में उन्हें पित-वंश परम्परा से चली आयी राज सम्पदा प्राप्त होती है । अर्थात् पिता के राज्य को संभाल सकता है, अन्यथा नहीं 176॥ गर्ग विद्वान ने भी यही कहा है : जननी जनकावतो प्राक्तनं कम विश्रुती । सर्वेषां राजपुत्राणां शुभाशुभप्रदौहि तौ ।।1॥ अर्थ :- राजकुमारों को अनुकूल व प्रतिकूल भाग्य से उन्हें इष्ट व अनिष्ट फल देने वाले माता-पिता की प्राप्ति होती है l जो राजकमार विनयशील-माता-पिता की भक्ति व सेवा करता है उसे उनके प्रसाद से उसे शभ शरीर, राजलक्ष्मी र प्राश होता है। अभिप्राय यह है कि माता-पिता का सन्तान के प्रति अनन्त उपकार होते हैं । इसलिए सख शान्ति के इच्छुक पुत्रों को अपने माता-पिता की तन, मन, धन से सतत् सेवा-सुश्रुषा व आज्ञापालन करना चाहिए 177॥ रैम्य विद्वान ने भी कहा है : अतएव हिविज्ञेयौ जननी जनकावुभौ । दैवं याभ्यां प्रसादेम शरीरं राज्यमाप्यते ॥1॥ उपर्युक्त ही अभिप्राय है ।। जो व्यक्ति मन से भी अपने माता-पिता का अपमान करता है, अवज्ञा का भाव रखता है व तिरस्कार की भावना रखता है, उनके पास से लक्ष्मी, दूर हो जाती है । जो वैभव प्रसन्नता से प्राप्त होने वाला था वह भी दूर भाग जाता है । अभिप्राय यह है कि सुख सम्पत्ति पाने के अभिलाषियों को माता-पिता की भूलकर भी अवज्ञाअपमान नहीं करना चाहिए। अज्ञात दशा में भी उनका तिरस्कार नहीं करना चाहिए फिर जानकर अपमान करना तो महा अनर्थ है 1080 वादरायण विद्वान ने भी कहा है: मनसाप्यपमानं यो राजपुत्रः समाचरेत् सदा मातृपितृभ्यां च तस्य श्री : स्यात् पराङ्मुखा ॥1॥ वही अभिप्राय है । 449
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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