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________________ नीति वाक्यामृतम् विशुद्धाकर संभूतोमणिः संस्कारयोगतः । यात्युत्कर्ष यथात्मैवं कियामन्त्रैः सुसंस्कृतः ।।4।। सुवर्णधातुरथवा शुद्धचेदासाद्य संस्क्रि याम् । यथा तथैव भव्यात्मा शुद्धयत्यासादित क्रियः ।।।। ज्ञानजः स तु संस्कारः सम्यग्ज्ञानमनुत्तरम् । यदाथ लभते साक्षात् सर्वविन्मुखतः कृती ।।6 ॥ तदैष परमज्ञानगर्भात् संस्कारजन्मना । जातो भवेद् द्विजन्मेति व्रतैः शीलैश्च भूषितः 117 ॥ आदि पु. अर्थ :- वंश परम्परा से आगत पिता की वंश शुद्धि "कुल" और माता की वंश शुद्धि "जाति" है, तथा दोनों कुल व जाति की शुद्धि"सज्जाति"कही जाती है । अभिप्राय यह है कि जिन दम्पत्तियों के बीज-वृक्ष सदृश परम्परागत समान गोत्र में, विधवा व विजाति विवाह नहीं हुआ हो-पिण्ड अशुद्धि नहीं हुई हो, किन्तु एक ही जाति में भिन्न गोत्र की कन्या के साथ विवाह संस्कार द्वारा प्रवाह रूप चला आया वंश पूर्ण विशुद्ध हो, उसे "सज्जाति" कहते हैं । इस प्रकार के विशुद्ध कुल में उत्पन्न पुरुष को सहज-स्वभाव से सदाचार, शिष्टाचार, उत्तमशिक्षा, शुभाचार धर्मानुराग प्राप्त हो जाते हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय भी परम्परा से सहज-बिना विशेष पुरुषार्थ के प्राप्त होता है In 128 उपर्युक्त सज्जातित्व की विशेष सुरक्षार्थ आचार्य श्री ने गर्भाधानादि संस्कारों से उद्भूत द्वितीय सज्जातित्व कहा है । जिसके द्वारा कुलीन भव्यात्मा द्विजन्मा (1. गर्भ से शरीर का जन्म और 2. संस्कारों से आत्म-संस्कार) कहा जाता है । यथा विशुद्ध खान से निकली मणि संस्कार द्वारा समुज्जवल-प्रकाशित होती है उसी प्रकार श्रेष्ठ कुलोत्पन्न मनुष्य गर्भाधानादि मंत्रों के संस्कारों से संस्कारित हुए विशेष निर्मल-विशद परिणामी हो जाते हैं । जिस प्रकार सुवर्णपाषाण उत्तम संस्कार-छेदन भेदन व अग्निपुट-पाक आदि से शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार विशुद्ध कुलोत्पन्न भव्यात्माजीव भी उत्तम क्रियाओं (संस्कारों) को प्राप्त कर परम विशुद्ध हो जाता है । धार्मिक संस्कार आत्मा को शुद्ध करते हैं ।4-51 उत्तम संस्कार ज्ञान से जाग्रत होते हैं । सम्यग्ज्ञान सर्वोत्तम है । जिस क्षण यह भव्यात्मा साक्षात् सर्वज्ञ देव । के मुखारबिन्द से प्रकट दिव्य धर्मोपदेश रुप ज्ञानामृत का पान करता है तब वह सम्यग्ज्ञान रूप गर्भ से संस्कार रुप जन्म से सुसंस्कृत हो पाँच अणुव्रत 3 गुणव्रत, 4 शिक्षाव्रतों से विभूषित हुआ “द्विजन्मा" कहलाता है । सारांश यह है कि कुलीन दम्पत्ति से उत्पन्न सन्तान भी कुलीन, उत्तम होती है और गर्भाधानादि से मंत्र संस्कारों से मोक्षसाधन भूतरत्नत्रय धारक होने योग्य हो जाते हैं । यह प्रथम हेतू है । 446
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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