SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 489
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नीति वाक्यामृतम् पिशुनं दानमाधुर्य संप्रयायि कथंचन । सिक्तश्चेक्षुरसेनापि दुस्तत्यजा प्रकृतिर्निजा ।1॥ प्रकृति, कृतघ्नों को पोषण, विकृति के कारण, शारीरिक सौन्दर्य व कुटुम्बियों का संरक्षण : क्षीराश्रित शर्करापानभोजितश्चाहिर्नकदाचित् परित्यजति विषम् ।।57 ।। यह सूत्र मु.म.पुस्तक में संकलित है सं.टी.पु. में नहीं है ॥ सम्मानदिवसादायुः कुख्यानामपग्रहहेतुः ॥७॥ तंत्र कोशवधिर्नी वृत्तियादान् विकारयति ।।59॥ तारुण्यमधिकृत्य संस्कार साराहितोपयोगाच्च शरीरस्य रमणीयत्वं न पुनः स्वभावः ।।60॥ भक्ति विश्रम्भादव्यभिचारिणं कुल्यं पुत्रं या संवर्धयेत् ।।61 ॥ विनियुञ्जीत उचितेषु कर्मसु 162॥ अन्वयार्थ :- (क्षीराश्रितशर्करा) शक्कर मिला दुग्ध (पानभोजितः) पीकर भोजन करने वाला (अहि) सर्प (कदाचित्) कभी भी (विषम्) जहर को (न) नहीं (परित्यजति) त्यागता है । 58 ॥ (तंत्रः) सेनादि (कोशः) खजाना (वर्धिनी) बढ़ाने वाली (वृत्तिः) दान सम्मानादि (दायादान) कुटुम्बियों को (विकारयति) प्रतिकूल करती है 159॥ (तारुण्यम्) यौवन को (अधिकृत्य) स्वीकार कर (संस्कारसारः) सजावट-श्रृंगार से (आहित) प्राप्त (च) और (उपयोगात्) उपयोग से (शरीरस्य) शरीर का (रमणीयत्वम्) सौन्दर्य है (पुनः) इसके सिवाय (स्वभाव:) स्वभाव से (न) नहीं 160 ॥ (भक्तिविश्रम्भात्) भक्ति, विश्वास, सद्धावान (अत्यभिचारिणा अनुरुल सदाचारी (कुल्यम्) कुटुम्ब (वा) अथवा (पुत्रम्) पुत्र को (संवर्धयेत्) संरक्षण करे ।। (उचितेषु) योग्य (कर्मसु) कार्यों, पदों पर (विनियुजीत) नियुक्त करे 161-621 विशेषार्थ :-जिस प्रकार भजंग को शर्करा मिलाकर मधुर दुग्ध पान कराया जाय तो भी वह अपनी विषाक्त प्रकृति को नहीं छोड़ सकता । उसी प्रकार जिसकी जैसी प्रकृति होती है वह उसे नहीं छोड़ सकता । सारांश यह है कि वेश्याएँ भी धनलोलपता वश अपने व्यभिचार कर्म का परित्याग नहीं कर सकती । इसलिए विवेकी, सदाचारी, नीतिवान पुरुषों को शारीरिक भयंकर रोगोत्पादक, धनविनाशक, चारित्रसंहारक, मान मर्यादा विनाशक, प्राण घातक वेश्याओं का संगम त्याग ही देना चाहिए 11 उनसे सम्बन्ध ही नहीं रखना चाहिए ।5711 - अर्थ भी कभी अनर्थों का मूल हो जाता है । प्रजापालक-राजा अपने निकट-सम्बन्धियों को उच्च-पदाधिकारी बना देता है, उन्हें भरण-पोषण के प्रचुर धनादि साधन प्रदान करता है तो वे अहंकार के वशीभूत हो जाते हैं । अभिमानी विवेक शून्य हो जाता है । फलतः वह राज्य के लोभ से राजा को ही मार डालते हैं ।।58 ॥ शुक्र विद्वान ने भी कहा है: कुल्याणां पोषणं यच्त कि यते मूढपार्थिवैः । आत्मनाशाय तग्ज्ञेयं तस्मात्याज्यं सुदूरतः ।।1॥ अर्थ :- निकटवर्ती पारिवारिक जनों का पोषण करना राजा की मूर्खता है क्योंकि वे लोभवश उसी के घातक M सिद्ध होते हैं । अतः उन्हें दूर ही से त्याग देना चाहिए । ॥ 442
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy