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नीति वाक्यामृतम्।
नीति वाक्यामृतम्
श्रीसोमदेवसूरि विरचित
धर्म समुद्देश
सोमं सोमसमाकारं सोमाभं सोमसंभवं ।
सोमदेवमुनि नत्वा नीतिक्क्यामृतं ब्रुबे।। अन्वयार्थः- (सोमसंभव) सोमवंश में उत्पन्न (सोमाम) चन्द्र के समान कान्ति को धारण करने वाले (सोमसमाकारं) विधुवत्-आहादकारी आकृति युक्त (सोमदेवं मुनि) सोमदेव सूरि के गुरु (सोम) चन्द्रप्रभु जिनेश्वर को (नत्वा) नमस्कार कर (नीतिवाक्यामृतं) प्रस्तुत नीतिवाक्यामृत ग्रन्थ को (ब्रुबे) कहता हूँ।
विशेषार्थ:- आचार्य श्री ने अपने कर्तव्य की प्रतिज्ञा ज्ञापित करते हुए कार्य को निर्विघ्न समाप्ति के लिए मंगलाचरण में श्री चन्द्रप्रभु भगवान को नमस्कार किया है । भाषा के सौष्ठव के साथ अपूर्व बुद्धि कौशल भी दर्शाया है । सोमदेव ने अपने स्वयं के नाम के साथ श्री चन्द्रप्रभ देव को भी जोड दिया है । इससे आपकी अनन्य भक्ति विदित होती है। यहाँ अनुप्रास अलंकार का प्रयोग बुद्धि कौशल सूचक है ।
पुराणों में ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण और ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं यति ये चार आश्रम कहे हैं। जनता जिन नियमों द्वारा अपने-अपने कर्तव्यों का यथोचित पालन करे, सदाचार रूप प्रवृत्ति में निष्ठ हो वह "नीति' कहलाती है । अथवा यह कहें जिसके माध्यम से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थों का अविरोध समन्वयपूर्वक अनुशासन चलता रहे वह “नीति" कही जाती है । इस नीति की प्रतिपादक अमृत सदृश वाक्य रचना जिस ग्रन्थ में हो वह “नीतिवाक्यामृत" कहा जाता है । राज्य शासन के यान, आसन, सन्धि, विग्रह आदि का यथोचित उपयोग करने के माध्यम इसमें वर्णित हैं इसी से इस ग्रन्थ का नाम स्वयं रचियता श्री सोमदेवसूरि ने युक्तियुक्त घोषित किया है । इसकी संस्कृत टीका प.2 पर भी इसी भाव को दर्शाया है। ऐसा प्रतीत होता है इसके रचना काल के समय देश, व समाज में कुछ अराजक तत्त्व पनप चुके होंगे, राजनीति में कुछ विडम्बना उपस्थित हुई होगी, उसे देखकर दयार्द्र आचार्य श्री ने शुभ, योग्य, धर्मानुकूल, सदाचार वर्द्धक नीतियों का संग्रह किया है अर्थात् लिखा है, नीति भी है "सर्वोपकाराय सतां विभूतयः" महात्माओं का उद्देश्य महोपकारी होता है ।