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नीति वाक्यामृतम्
मित्र समुद्देशः
मित्र के लक्षण व भेद :
यः सम्पदीव विपद्यपि मेद्यति तन्मित्रम ।।1 ॥ यः कारणमन्तरेण रक्ष्योरक्षको वा भवति तन्नित्यं मित्रम् ।।2।। तत्सहजं मित्रं यत्पूर्वपुरुष परम्परायातः सम्बन्धः | B॥ यद वृत्ति जिवित हेतोगनितं तत्कृत्रिमं मित्रम् ।।4 |
अन्वयार्थ :- (य:) जो (सम्पदि) सम्पति के (इव) समान (विपदि) विपत्ति में (अपि) भी (मेद्यति) स्नेह करता है (तत्) वह (मित्रम्) मित्र [अस्ति] है ।।1।। (यः) जो (कारणम्) प्रयोजन (अन्तरेण) नहीं होने से भी (रक्ष्य) बचाने योग्य (वा) अथवा (रक्षकः) रक्षा करने वाला (भवति) होता है (तत्) वह (नित्यम्) नित्य (मित्रम्) मित्र [भवति] होता है ।।2 ॥ (यत्) जो (पूर्वपुरुष) पूर्वजों की (परम्परायातः) परम्परा से चला आया (सम्बन्धः) सम्बन्ध हो (तत्) वह (सहजम्) सहज (मित्रम्) मित्र [अस्ति] है ।B॥ (यत्) जो (वृत्तिः) आजीविका (जिवितहेतो) जीवन के निमित्त (आश्रितम्) आश्रय ले (तत्) वह (कृत्रिमम) बनावटी (मित्रम्) मित्र [अस्ति] है |4||
भावार्थ:- जो पुरुष सम्पत्ति काल अर्थात् सुखमय जीवन के समान दुःख संकट आने पर भी उसी प्रकार साथ दे उसे मित्र कहते हैं। यदि आपत् काल में सहयोगी नहीं हो तो वह मित्र नहीं, अपितु शत्रु है | जैमिनि विद्वान ने भी लिखा है :
यत्समृद्धौ कि यात्स्नेहं यद्वत्तद्वत्तथापदि, तन्मित्रं प्रोच्यते सद्रि परीत्येन वैरिणः ।।1।।
जो सम्पत्ति व विपत्ति दोनों स्थिति में समान रूप से स्नेह करे वह मित्र, इससे विपरीत चले वह शत्रु है ।।
जो शत्रु द्वारा पीडित किये जाने पर एक-दूसरे की रक्षा करते हैं "वे नित्य मित्र" कहलाते हैं ।।2 || नारद विद्वान ने नित्यमित्र का यही लक्षण बताया है । यथा :
रक्ष्यते वध्यमानस्तु अन्यैर्निष्कारणं नरः । रक्षेद्वा वध्यमानं यत्तन्नित्यं मित्रमुच्यते ॥1॥
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